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२६ - अपने संघ में, तीर्थ में सुविहित, शुद्ध प्ररूपक, उद्यतविहारी, साधु-साध्वीजो
भगवंतों का आगमन, स्थिरता, चातुर्मास, प्रवचन आदि होते रहें, इसके लिए
प्रयत्नशील रहें । २७ - श्रावक जीवन का उत्तम ज्ञान प्राप्त करने के लिए ट्रस्टी के लिए 'श्राद्धविधि'
तथा 'धर्मसंग्रह' भाग-१ का पुनः पुनः पठन-मनन करना अत्यंत आवश्यक है । साधुभगवंतों की समाचारी का ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्मसंग्रह भाग-२ का
गुरुनिश्रा में पठन करना चाहिए। २८ - बहुमती-सर्वानुमती के चक्कर में न पड़ें । शास्त्रमती से चलने का निर्णय करें ।
शास्त्र सर्वज्ञ के हैं । सर्वज्ञ ही हमारा सच्चा हित कर सकते हैं, इसलिए शास्त्रों
को प्रधान बनाकर प्रबंध करें । २९ - यथासंभव चुनाव की पद्धति को टालें । इसके अपार अनिष्ट हैं । संघ द्वारा या
ट्रस्ट-मंडल द्वारा ही नूतन संचालकों का चयन किया जाना चाहिए । गीतार्थ गुरुभगवंतों से उस चयन का अनुमोदन करवाना अथवा यों कहें कि चयन प्रक्रिया में उनका मार्गदर्शन एवं परामर्श प्राप्त करना संघ के उज्ज्वल भविष्य
के लिए हितावह है। ३० - संघ की वार्षिक आवश्यकता के मद्देनजर आवश्यक रकम रखकर, शेष सारी
रकम सुयोग्य क्षेत्रों में इस्तेमाल कर देनी चाहिए । इस काल में यह सब से
अधिक आवश्यक बात है । अति संग्रह विकास को जन्म देता है । ३१ - जिस स्थान में रकम खर्च करनी हो वहाँ की व्यवस्था, क्षमता, संचालन आदि
का अनुमान कर लेना चाहिए । अपनी व्यक्तिगत रूप से जाँच-परख करने के पश्चात ही रकम दान में देनी चाहिए । ग्राहक संघ अगर सक्षम हो तो रकम
लोन के रूप में भी दी जा सकती है। ३२ - सोमपुरा-शिल्पियों के भरोसे पर बांधकाम, निर्माण, जीर्णोद्धार आदि कार्य नहीं
किए जाने चाहिए । जैन संघ के निःस्वार्थ कर्मठ कार्यकर्ता, अग्रणिजनों की
सलाह लेनी चाहिए; जिस से संघ के द्रव्य का दुर्व्यय न हो । । ३३ - निर्माण-जीर्णोद्धार आदि कार्यों की ट्रस्टी स्वयं देखभाल करें । कोन्ट्राक्टरों के
भरोसे काम करने में बहुत परेशानी तथा अनावश्यक रूप से धन का दुर्व्ययखर्च होने की संभावना रहती है । जयणा का पालन भी नहीं होता ।
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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