________________
१९ - विविध सरकारी टैक्स, ओक्ट्रोय आदि की चोरी ट्रस्टी स्वयं न करें ।
धर्मसंस्थाओं को भी ऐसे कार्य करने की प्रेरणा न दें । २० - हरेक ट्रस्टी के लिए यह आवश्यक है कि वह कम से कम एक बार ज्ञानी गुरु
के पास बैठकर 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रंथ का अनुवाद पढ़ लें । धार्मिक एवं धर्मादा द्रव्यों की व्यवस्था के लिए यह संघमान्य-प्रामाणिक ग्रंथ होने के कारण उसमें
दी गई सूचनाओं के अनुसार द्रव्यव्यवस्था करने का प्रबंध करें ।। २१ - ट्रस्टी को 'ट्रस्टडीड' का अभ्यास अच्छी तरह से करना चाहिए । उसमें अगर
कहीं कोई शास्त्रविरोधी बातें लिख दी गईं हों तो उचित उपायों के द्वारा उन्हें सुधारना चाहिए । डीड में 'द्रव्यसप्ततिका' का उल्लेख खास तौर से हो इसका
प्रावधान करना चाहिए । २२ - कायमी फंडों के चक्कर में पड़ने के बजाय प्रति वर्ष की आय के स्रोत निर्मित
करना अच्छा है । उदाहरण के तौर पर जिनमंदिर के लिए अष्टप्रकारी पूजाद्रव्य का लाभ लेने के लिए बारह महीनों की बोली बोलकर बोर्ड पर एक वर्ष के लिए लाभ लेनेवाले का नाम लिखने से प्रायः वर्ष का खर्च निकल जाता है । इसी प्रकार साधारण क्षेत्र के लिए भी चढ़ावा या नकरा तय करके, नाम लिखे
जा सकते हैं । प्रति वर्ष की ३६० तिथियाँ भी निश्चित की जा सकती हैं । २३ - वर्ष दरमियान संचालन में अनजाने भी किसी क्षेत्र के द्रव्य में कुछ गड़बड़ हुई
हो तो उससे बचने के लिए ट्रस्टी सभी खातों में अपना व्यक्तिगत-थोड़ा ही सही - द्रव्य अवश्य लिखाएं । किसी प्राप्त लाभ के बदले में लिखाया गया यह द्रव्य
न हो । २४ - जिनमंदिर आदि धर्मस्थानों के नौकर-कर्मचारीवर्ग के प्रति ट्रस्टी माँ-बाप के
जैसा ही व्यवहार करें। काम के विषय में पूर्ण सावधानी की अपेक्षा रखें । साथ
ही अच्छे कार्य की कदर करना भी आना चाहिए ।। २५ - संघ में क्लेश का वातावरण उपस्थित न हो इसका ध्यान रखें । फिर भी क्लेश
हो जाए तब दिमाग को ठंडा रखकर समाधान प्रस्तुत करें । क्लेश निवारण हेतु किसी गीतार्थ सद्गुरु का शास्त्रीय मार्गदर्शन लेने के लिए लिखित प्रस्ताव
लाकर कार्य करना हितावह है । | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
५१]
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org