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परिशिष्ट-३
धर्म-संस्थाओं के संचालकों को महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन !
१ - धर्मक्षेत्रों का संचालन शास्त्रोक्त नीति के अनुसार ही करें ।। २ - भगवान के सच्चे पुजारी तो श्रावक-श्राविका ही होते हैं । अपने भगवान की पूजा
का सारा कार्य यथासंभव स्वयं ही करें । ३ - अन्य पुजारी को अगर रखना ही पड़े तो केवल मंदिर की रक्षा, सफाई, सार
संभाल आदि बाह्य कार्यों पर ध्यान देने के लिए ही रखा जाए । ४ - जिनमंदिर में मनिमों की प्रायः आवश्यकता ही नहीं होती । प्रौढ़जन, निवृत्त लोग
हो वहाँ जा कर हिसाब-किताब लिखने का, देखने का, जाँचने का कार्य कर
सकते हैं। ५ - वैज्ञानिक विकास के विविध रंगों से प्रभावित हो जाए ऐसा आधुनिकतावादी
व्यक्ति हमारा ट्रस्टी या संचालक नहीं होना चाहिए । ६ - स्वामिवात्सल्य में रात्रिभोजन, द्विदल भक्षण, बरफ-आइस्क्रीम, बाज़ार में बनी
चीजें, बुफे भोजन जैसे रीति-रिवाज़ों को न अपनाएं । याद रहना चाहिए कि हमारे
यहाँ खाने की नहीं, भावपूर्वक खिलाने की महिमा थी । ७ - तीर्थस्थानों में तथा धर्मस्थानों में नवरात्रि के गरबाओं का खेल न हो, जन्माष्टमी
पर जुआ खेलना, आशातनाएँ, अभक्ष्य आहार, अपेयपान न हो और विडीओ, टी.वी., ट्रांजिस्टर, समाचार पत्र-पत्रिकाओं आदि के द्वारा विलासिता-बिभत्सता,
अश्लिलता को प्रोत्साहन न दिया जाए, इसके लिए चुस्त प्रबंध किया जाए । ८ - धर्मस्थान का खाता जिन बैंकों में हो, वहाँ ट्रस्टी अपना व्यक्तिगत खाता न
रखें । धार्मिक खातों की ED. तथा जमा रकम पर स्वयं क्रेडिट प्राप्त न करें ।
यह महान दोष है । ९ - स्वयं बोली बोले तो तुरंत रकम भर दें । तुरंत रकम भरने के लिए पहले से
घोषणा कर दें । इसके लिए बोर्ड भी लगा दिया जाए तथा औरों को भी बोली
का द्रव्य तुरंत भरने के लिए प्रोत्साहित करें । धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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