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ज्ञानद्रव्य के इस्तेमाल में श्रावक को देवद्रव्य के इस्तेमाल जितना भारी पाप लगता है । अतः शास्त्रीय मर्यादा व भेदरेखा समझकर बर्ताव करें ।
साधारण द्रव्य भी संघ ने दिया हो तो ही श्रावक के लिए स्वीकार्य हो सकता है । प्रश्नोत्तर समुच्चय, आचारप्रदीप, आचारदिनकर तथा श्राद्धविधि आदि ग्रंथों के अनुसार श्री जिनेश्वर भगवान की अंगपूजा की ही तरह श्री गुरुमहाराज की अंगपूजा तथा अग्रपूजा सिद्ध होती है । गुरुपूजन का यह द्रव्य गुरु से भी ऊपर के क्षेत्र जिनमंदिर जीर्णोद्धार तथा नवनिर्माण क्षेत्र में ही प्रयुक्त करना चाहिए । प्रभु की अंगपूजा में यह द्रव्य खर्च न करें ।
पंचमहाव्रतधारी साधु-साध्वियों का किसीने 'न्यूंछना' 'द्रव्य - ओवारणा' किया हो तो वह द्रव्य पौषधशाला उपाश्रय के जीर्णोद्धार - मरम्मत या निर्माण में लगा सकते हैं । यह द्रव्य श्रावकों को नहीं दे सकते । याचकों को भी नहीं दे सकते ।
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धर्मस्थान में खर्च करने के लिए घोषित किया गया द्रव्य अलग ही रखें । तीर्थयात्रा के लिए रकम निकाली हो तो गाड़ीभाड़ा, निवास, भोजन आदि का खर्च इसमें से न करें । यह महापाप है ।
किसी ने धर्म कार्य में खर्च करने के लिए कुछ धन दिया हो तो उसका उपयोग उस व्यक्ति के नाम की स्पष्ट घोषणा के साथ ही किया जाना चाहिए ।
+ माता-पिता आदि स्वजनों की अंतिम अवस्था के समय सुकृत में खर्च करने के लिए जितने भी धन की घोषणा की गई हो, उसे संघ के समक्ष समय मर्यादा पूर्व घोषित कर देना चाहिए तथा तुरंत वह धन उनके नाम से ही खर्च कर देना चाहिए ।
धर्म के उपकरण इधर-उधर गलत स्थान में रखने से श्रावक को बहुत बड़ा दोष लगता है, इसलिए धर्मोपकरणों को सम्हाल कर रखना चाहिए तथा कार्य पूर्ण होने पर सुयोग्य स्थान पर रख देना चाहिए ।
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देवद्रव्य आदि की रक्षा के कार्य में शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करने वाले साधु भी अनंत संसारी बन जाते हैं, अतः उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।
अपने प्राणों को न्यौछावर करके भी शासन की आशातना को रोकना चाहिए ।
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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