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२. संघ संचालन मार्गदर्शन
परिशिष्ट-१ श्री श्वेतांबर मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ में सर्वमान्य ग्रंथ 'द्रव्यसप्ततिका' के आधार पर कुछ समझने योग्य तथ्य
+ धार्मिक द्रव्यों का वहीवट करने के लिए १ - मार्गानुसारी गृहस्थ, २ - सम्यग्दृष्टि
श्रावक तथा ३ - देशविरतिधर श्रावक अधिकारी हैं । सर्वविरतिधर साधु भगवंत भी विशिष्ट संयोग - कारण उपस्थित हों तब धर्मद्रव्य-रक्षा आदि के
अधिकारी हैं । + कर्मादान (हिंसक धंधे-फैक्ट्री-शेयर मार्केट आदि में निवेश) इत्यादि अयोग्य
कार्यों का त्याग करके, उत्तम व्यापार आदि के द्वारा ही देवद्रव्यादि धर्मद्रव्यों की वृद्धि करनी चाहिए । श्रावकों को ब्याज पर भी देवद्रव्य नहीं देना चाहिए । दूसरों को देते समय भी अधिक मूल्यवान अलंकार रखकर ही देना चाहिए । जिनमंदिर आदि धर्मस्थानों की व्यवस्था, रखरखाव-देखभाल तथा संचालन
करने वालों को 'वैयावच्च' नामक तप का लाभ प्राप्त होता है । + द्रव्यसप्ततिका कहती है कि - जिस हेतु से जो द्रव्य आता है, उसे उसी हेतु में - उसी कार्य में लगाना चाहिए । यह एक उत्सर्ग नियम (राजमार्ग जैसा नियम) है । इसमें अपवाद स्वरूप नियम ग्रंथकार ने बताए हैं । अपवाद का अवसर होने पर ही अपवाद का प्रयोग किया जा सकता है । गीतार्थ गुरुवर अपवाद के ज्ञाता होते हैं । अपवाद सेवन पूर्व गीतार्थ गुरुवरों की आज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य है । अपवाद का अवसर न होते हुए भी यदि अपवाद मार्ग का आचरण किया जाता है तो वह अपवाद नहीं रहता, बल्कि उन्मार्ग बन जाता है । अपने घर का दीपक प्रभु दर्शन के हेतु अगर मंदिर पर ले आये हों तो वह दीपक देवद्रव्य नहीं बनता है । नैवेद्य चढ़ाने के लिए थाली-बर्तन मंदिर लाए
हों तो वे भी देवद्रव्य नहीं बनते । आंगी के हेतु अपने अलंकार शुद्ध करके | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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