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________________ श्री सात क्षेत्र JAN परिचय ६-श्रावक क्षेत्रः ७-श्राविका क्षेत्र : सार्मिक संबंध से जुड़े श्रावक और श्राविका चतुर्विध श्री संघ के दो अंग हैं । जिनाज्ञाबद्ध चतुर्विध श्री संघ तीर्थंकर तुल्य है । तीर्थंकर तुल्य श्रीसंघ की भक्ति *बहुमान पूर्वक करनी चाहिए। श्रावक-श्राविका क्षेत्र की भक्ति साधर्मिक भक्ति कहलाती है। जिनेश्वर और जिनाज्ञा को सच्चे भाव से स्वीकारने वाला हमारा साधर्मिक कहलाता है । एक साथ सात क्षेत्रों की भक्ति और सभी धर्मानुष्ठान हम नहीं कर सकते, इसी कारण सभी क्षेत्रों की भक्ति का और प्रत्येक धर्मानुष्ठान की आराधना का यत्किचित् लाभ हमें मिले, इस लिए प्रभु ने साधर्मिक भक्ति का मार्ग बताया है । साधर्मिक भक्ति करते समय अमीरी और गरीबी ना देखकर, सार्मिक के गुणों को देखना चाहिए । केवल आर्थिक परिस्थिति से साधर्मिक का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए । सभी को एक नजर से देखकर भक्ति करना हमारा कर्त्तव्य है । सार्मिक के गुणों की अनुमोदना करते हुए, उनके गुण हमें भी प्राप्त हों, इस उद्देश्य से साधर्मिक भक्ति करनी चाहिए । 'हमारी धर्मभावना और धर्माराधना बढ़ती रहे' इस भाव से भक्ति करनी चाहिए । हमारी शक्ति-संयोग के अनुसार और सार्मिक की परिस्थिति-जरूरत के अनुसार भक्ति करनी जरूरी है। __ आर्थिक परिस्थिति से नाजुक साधर्मिक की व्यावहारिक जिम्मेदारी अपने सिर लेकर उसकी हर कठियनाई दूर करनी चाहिए । अपने हर प्रसंग में उन्हें विनंतिपूर्वक आमंत्रित कर बहुमान पूर्वक मदद करनी चाहिए । साधर्मिक की छोटी भी आराधना का निमित्त पाकर उसकी भक्ति का लाभ लेना चाहिए। साधर्मिक को ज्यादा से ज्यादा धर्म से नजदीक लाने का प्रयत्न करें । कल्याण मित्रों और गुरु भगवंत के साथ संपर्क में लाएं । साधर्मिक वात्सल्य में बूफे सीस्टम साधर्मिक की आशातना है । यावत् तीर्थंकर की भी आशातना है । तीर्थंकर आशातना से यावत् अनंत भव तक जैन धर्म, मनुष्य । भव प्राप्त न भी हो । धार्मिक महोत्सव में अभक्ष्य भक्षण, रात्रि भोजन और बूफे का त्याग ही होना चाहिए। हमारा सार्मिक, भक्ति करने योग्य है, अतः उसे लाचार व दयनीय न बनाएं । अनुकंपा, दान और साधर्मिक भक्ति में बहुत फर्क है; यह हम हमेशा ध्यान में रखें । XVII RCMC For Personal & Private Use of enbryo
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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