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उनके श्रीमुख से जिनवाणी का श्रवण करना, तदनुसार जीवन में पालन करना और उनके उपदेश का ज्यादा से ज्यादा प्रसार-प्रचार करना हमारा कर्तव्य है ।
श्रमणजीवन में कहीं भी छोटी-बड़ी गलतियां हो जाने पर, शास्त्रीय राह से उसे सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए । उस बात को पत्र-पत्रिका के माध्यम से आम जनता के सामने रखने से शासन अपभ्राजना का पाप लगता है । यह सबसे बड़ा पाप है।
साधु धर्म की रक्षा करनी एवम् साधुओं की जिनाज्ञापूर्ण आचरणा में सहायक बनना हम सकल संघों का दायित्व है । अतः निम्नलिखित प्रवृत्ति के बारे में उपयोग रखें।
१. किसी भी साधु को बिजली युक्त सुविधाएं - पंखे, कुलर, माईक, एअरकंडिशन फोन, मोबाईल, लेपटॉप, कंम्पुटर इत्यादि की सुविधा पौषधशालाओं में या अन्यत्र कही भी न दें एवम् न दिलवाने का उपयोग रखें ।
२. सामान्य संजोगों में सामने से गोचरी की व्यवस्था न करें। ३. चातुर्मास उपधान, महोत्सव इत्यादि प्रयोजन व अशक्त / बिमारी के अलावा स्थिरवास पर रोक लगाएँ एवम् स्थायी कमरे की व्यवस्था विशेषतः तीर्थ स्थान पर न करें ।
४. पौषधशाला में लघुनीति/गुरुनीति के लिए बाथरूम / संडास के बदले मातरा (पेशाब) की कुंडी / वाड़ा की व्यवस्था करें । ____५. साधु को किसी भी संस्था के संचालन, नियंत्रण या हिसाब-किताब का कोई पद न दें; स्वयं पद लेना चाहे तो विवेकपूर्ण विरोध करें ।
६. साधु द्वारा प्रायोजित अथवा प्रेरित किसी भी प्रकार के डोरों, धागों, चमत्कार और होम-हवन आदि मिथ्यात्ववर्धक विधि में न पड़ें और न हिस्सा
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