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________________ शिल्पशास्त्र में स्पष्ट कहा गया है कि, शास्त्र के मार्ग का त्याग करके अपनी बुद्धि से कोई भी नया प्रचलन शुरू किया जाता है, तो समस्त फल का नाश होता है। हजारों वर्ष से इस देश में मंदिर बनते हैं और उन सबकी ध्वजाएं प्रतिवर्ष सालगिरह पर बदली जाती हैं। पिछले दशक से पहले ध्वजाएं बदलने के लिए सीढ़ियां और पिंजरे नहीं थे, तब भी ध्वजाएं बदली जाती थी। अभी भी शत्रुजय, तारंगा, गिरनार, राणकपुर आदि जगहों पर सीढ़ी व पिंजरों के बिना ही ध्वजाएं बदली जाती हैं। ध्वजा बदलने के लिए श्रावकों को मंदिर पर चढ़ना ही चाहिए, ऐसा कोई धार्मिक नियम जानकारी में नहीं है। जिस दिशा से ध्वजा चढ़ानी हो, उसी दिशा से व्यक्ति शिखर पर चढ़ सकते हैं, वे ध्वजा लेकर ऊपर जाएं और ध्वजा बदलने का काम करें। यह पद्धति हजारों वर्ष से चली आ रही है और यही पद्धति ज्यादा योग्य है। श्रावकों में ऐसी मान्यता है कि, नीचे प्रतिमाजी हों तो उनके ऊपरी भाग में चलना अथवा खड़े नहीं रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से दोष लगता है। इस मान्यता के अनुसार तो अनिवार्य जरूरत न हो, तब तक श्रावकों को मंदिर के शिखर पर नहीं चढना चाहिए। क्योंकि मंदिर के पिछले भाग में पिंजरे के जिस भाग में श्रावक खड़े रहते हैं, वहीं नीचे प्रतिनाजी होती हैं। इसलिए स्वयं चढ़ने के बजाय अन्य व्यक्ति से ध्वजा चढ़वाना ज्यादा योग्य है। इसके बावजूद अपने हाथ से ही ध्वजा चढ़ाने का आग्रह हो, तो इसके लिए नीचे खड़े रहकर ध्वजा चढ़ाई. जा सके, ऐसा दूसरा मार्ग निकाला जा सकता है। यह हम अंत में देखेंगे। 'आचार दिनकर' नामक वर्धमानसूरीजी द्वारा रचित विधि-विधान के जैन ग्रंथ में तथा शिल्पशास्त्र के ग्रंथों में प्रासाद का देव-स्वरूप में वर्णन किया गया है। इसमें प्रतिमाजी आत्मा हैं और प्रासाद देह है, यह अर्थ दिया गया है। आमलसार ग्रीवा (गर्दन) है और कलश मस्तक है तथा ध्वजा केश है, यह भी कहा गया है। प्रतिमा के देहस्वरूप प्रासाद पर अपनी मान्यतानुसार सुविधा के लिए, जैसे मजदूर के सिर पर टोपली चढ़ाते हैं, वैसे पिंजरा और सीढ़ियां लगाना बहुत बड़ा अविनय माना जाता है। इस पिंजरे व सीढ़ी से मंदिर की शोभा बिगड़ जाती है, और चबूतरा जैसा दिखाई देता है। इससे शिल्पस्थापत्य का सौंदर्य भी खत्म हो जाता है। दुःख की बात तो यह है कि, अपने बनाए मंदिरों पर ऐसे पिंजरे चढ़ाकर उनका सौंदर्य बिगाड़नेवाले श्रावकों का शिल्पकार भी विरोध नहीं करते। आमलसार को प्रासाद की ग्रीवा अथवा गरदन धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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