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________________ माना गया है। खपेड़ों से प्रासाद की गरदन दबाई जाती है और ऐसा करना कई बार अनर्थकारी सिद्ध होता है। __कहने का तात्पर्य यही है कि, वर्तमान समय के इस अल्पकाल में देवस्वरूप प्रासादों पर धातुओं के पिंजरे और पत्थर लगाकर आपमति से मनमाने ढंग से जो अशास्त्रीय व आशातनाकारक रिवाज शुरू किए गए हों उनके दृष्टांत लेकर गतानुगतिक ढंग से अब मंदिरों पर उनका अमल न किया जाए तो अच्छा। इसके अलावा जहां ऐसा निर्माण हुआ हो, वहां से सीढ़ी-खपेड़ा आदि हटा लेना अत्यंत जरूरी है। प्रासाद देवस्वरूप व प्रतिमाजी के देहस्वरूप होने से प्रतिमाजी की तरह ही उसे भी पवित्र जल से अभिषेक किया जाता है, यह प्रतिष्ठाविधि के जानकारों को समझाने की जरूरत नहीं है। इन जानकारों को इस दुष्टप्रथा की जड़ें और गहरी उतरें, उससे पहले ही उखाड़ फेंकने का पुरुषार्थ करना जरूरी है। प्रासाद के ऊपर न चढ़ना पड़े और श्रावक अपने हाथ से ध्वजा चढ़ा सकें, ऐसा कैसे संभव हो, यह अब देखते हैं। अपराजित पृच्छा' नामक शिल्प ग्रंथ में ध्वजा दंडिका की पाटली के साथ 'चालिके द्वे' दो धिर्रियां लगाने की आज्ञा दी गई है, जिसके अनुसार वर्तमान में भी बड़ी ध्वज दंडिकाओं की पाटली के साथ घिर्रियां लगाई जाती हैं। इनमें सांकण पिरोकर उसके माध्यम से जिस दंडिका में ध्वजा पिरोई गई है, उसे ऊपर चढ़ाकर ध्वज दंडिका की पाटली के साथ संलग्न कर दिया जाता है। यह सांकण इतनी लंबी रखनी चाहिए कि उसके द्वारा ध्वजा पिरोने की पीतल की दंडिका जगती अर्थात चबूतरे के तल तक नीचे उतारी जा सके और उसमें ध्वजा को ध्वजदंडिका पाटली के साथ संलग्न किया जा सके, इसके बाद जो व्यक्ति शिखर पर गया हो, वह सांकण को ध्वज दंड के साथ मजबूत बांधकर नीचे उतर जाए, तो श्रावकों को शिखर पर न चढ़ना पड़े और वे ध्वजा अपने हाथ से चढ़ा सकें। निर्धारित मार्ग पर ही प्रदक्षिणा भी कर सकें। सांकण की लंबाई कम रखनी हो, तो सांकण के दोनों सिरे सूत की मजबूत डोरी से बांधे जा सकते हैं। ध्वजा ऊपर जाने के बाद अतिरिक्त डोरी खोल ली जाए और सांकण को ध्वज दंडिका के साथ बांध दिया जाए, ऐसा भी किया जा सकता है। परन्तु पिंजरे तथा सीढ़ियां लगाना धर्मशास्त्र व शिल्पशास्त्र की दृष्टि से बिल्कुल उचित नहीं हैं। क्योंकि शास्त्र विरोधी ऐसी मनमानी का प्रचलन समस्त पुण्य फल का नाश करनेवाला होता है। ___ (कल्याण वर्ष - ४८ (२६०) अंक - ४ जुलाई - ९१ से साभार) धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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