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परिशिष्ट - १२
रोकने जैसी एक आशातना
प्रतिमा आत्मारूप, प्रासाद देहरूप, आमलसार ग्रीवा-गर्दनरूप, कलश मस्तकरूप व ध्वजा केशरूप
सोमपुरा अमृतलाल मूलशंकर त्रिवेदी, पालीताणा
पिछले कुछ समय से मंदिर निर्माण के विषय में आशातना का एक नया ही प्रकार सम्मिलित हुआ है और दिन-प्रतिदिन यह रुढ़-दृढ़ होता जा रहा है । यह आशातना मंदिर के शिखर पर ध्वजा चढ़ाने की अनुकूलता के लिए साधन उपयोग करने के रूप में फैलती जा रही है। इस सुविधा का उपयोग वर्ष में एक ही बार हो सकता है । यह तो ठीक किन्तु शास्त्रीयता का घात करने पूर्वक और बारहों महीने तक मंदिर - शिखर की शोभा को अशोभनीय बनाकर इस सुविधा को अपनाने का जो चलन बढ़ रहा है, यह अत्यंत खेदजनक है। हम प्रतिमाजी को तो पूज्य - पवित्र मानते हैं, किन्तु संपूर्ण मंदिर भी पवित्र व पूज्य है। इसलिए ही मंदिर - शिखर - कलश के अभिषेक करने का विधान है। मंदिर की पवित्रता का ज्ञान नहीं, इसीलिए शिखर पर लोहे व अन्य धातु की जाली, खपेड़ा आदि लगाकर मंदिर की शोभा बिगाड़ने का काम आजकल तेजी से बढ़ता जा रहा है। गतानुगतिक ढंग से अपनाई जाती इस आशातना को लेकर लालबत्ती दिखानेवाला यह लेख सभी को और विशेषकर ट्रस्टियों के लिए पढ़ने योग्य और विचारणीय संपादक
है ।
धर्मशास्त्र व शिल्पशास्त्र ने जिसे देवस्वरूप माना है, ऐसे जैन मंदिरों के शिखरों पर वर्तमान में धातु की सीढ़ियां व शिखर के ऊपरी भाग में प्रदक्षिणा की जा सके, ऐसे धातु पिंजरे बनाने का नया प्रचलन शुरू हुआ है।
कोई भी कलाप्रिय अथवा धर्मप्रिय मनुष्य मंदिरों के ऊपरी भाग में ऐसा पिंजरा बना हुआ देखे, तो उसे आघात व ग्लानि हुए बिना नहीं रहती है। ऐसे पिंजरे बनाना यदि जरूरी होता, तो शिल्पशास्त्र की रचना करनेवालों ने इसकी विधि अवश्य बताई होती, परन्तु शिल्पशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र के किसी भी ग्रंथ में इसका उल्लेख तक नहीं है ।
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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