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परिशिष्ट-११ वर्तमान की समस्या का शास्त्र सम्मत समाधान सवाल - अधिकांश संघों में देवद्रव्य लाखों रूपियों में संचित होकर बैंकों में पड़ा है । आजकल देवद्रव्य की कोई जरूरत नहीं लगती । तो क्यों न इसे सार्मिक भक्ति या स्कूल-कॉलेज, शादी की बाड़ी, व हॉस्पीटलों में लगाएँ ? कृपया समाधान दें ।
जवाब - श्री जिनेश्वर देव की भक्ति के लिए एवं श्री जिनेश्वर देव की भक्ति के निमित्त से जिनभक्तों द्वारा समर्पित राशि देवद्रव्य कहलाती है। इस द्रव्य की मालिकी श्रावकों की या संघ की नहीं, परन्तु श्री जिनेश्वर देव की स्वयं-खुद की है ! संघ केवल इसका संचालक-ट्रस्टी है । उसे जिनेश्वर देव के बताए शास्त्रों अनुसार इस द्रव्य का संचालन करने मात्र का ही अधिकार है । इस में वह अपनी मर्जी से काम नहीं ले सकता । शास्त्र-आधारित गीतार्थ गुरु की आज्ञा से ही कार्य करना उसके लिए बंधनरूप है ।
जैन शास्त्रों के आधार से ‘देवद्रव्य' की राशि केवल श्री जिनेश्वर देव के मंदिरों के जीर्णोद्धार व नवनिर्माण आदि कार्य में ही इस्तेमाल हो सकती है । अतः देवद्रव्य का इन्हीं कार्यों में उपयोग होना चाहिए । पूरे भारत में आज भी सैंकड़ों जिनमंदिर जीर्णोद्धार मांग रहे हैं । कई स्थानों पर श्रावकों को जिनमंदिर उपलब्ध नहीं हैं, वहाँ नए भी बनवाने जरूरी हैं । इस कार्य में अरबों रुपयों का व्यय अपेक्षित है । तो देवद्रव्य का बैलेन्स ही कहां से होगा ? सकल श्रीसंघ उदारता दिखाकर बैंकों के कब्जे से देवद्रव्य को मुक्तकर जीर्णोद्धार व नवनिर्माण में देवद्रव्य लगा दे तो वर्तमान काल की राजकीय विषमता से भी अपना परमपवित्र देवद्रव्य बच सकेगा । बाकी सरकारी अमलदार कब कलम की नोंक पर इसका कब्जा कर लेंगे यह अब नहीं कहा जा सकता ।
श्रावक का यह कर्तव्य है कि देवद्रव्य में नित नई वृद्धि करें । देवद्रव्य का एक पैसा भी अपने निजी धंधा-व्यापार या भोग-उपयोग में न आ जाए - इसका भी श्रावकों को ख्याल रखना चाहिए । क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि -
देवद्रव्य का भक्षण करनेवाला, देवद्रव्य के भक्षण की उपेक्षा करनेवाला,
देवद्रव्य की निंदा करनेवाला, | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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