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देवद्रव्य की आवक (वृद्धि) को तोड़नेवाला देवद्रव्य की बोली आदि राशि नहीं चुकानेवाला देवद्रव्य की उगाही में शिथिलता बरतनेवाला
श्रावक हो या साधु पाप कर्म से लिप्त बनते हैं । ऐसे लोग अज्ञानी हैं, उन्होंने धर्म जाना ही नहीं है । अंततोगत्वा इस पाप से वे अनंत संसारी बननेवाले हैं । या तो इन लोगों ने नरक का आयुष्य उपार्जित कर लिया लगता है ।
अब आप विचार कीजिए कि इतना पवित्र देवद्रव्य है, इसका प्रयोग सार्मिक भक्ति में करना याने श्रावकों को भवोभव के लिए नरक व संसार भ्रमण में डालना और पूर्व कर्मों से वर्तमान में दुःख भुगतनेवालों को देवद्रव्य देकर, पापी बनाकर भावी में भी महादुःखी बनाना क्या उचित है ?
परम पवित्र देवद्रव्य सर्वश्रेष्ठ धर्मद्रव्य है । यह किसी भी संयोग में स्कूल-कॉलेज या अस्पतालों के निर्माणादि कार्य में नहीं लगा सकते । स्कूलें - कॉलेजें खोलनाचलाना, अस्पतालों का निर्माण करना-चलाना, शादी-ब्याह के भवन विविधलक्षी हॉल आदि का निर्माणादि : ये सब सामाजिक कार्य हैं । ये,सामाजिक कार्य देवद्रव्य से संपन्न नहीं हो सकते । देवद्रव्य से इन कार्यों को करना याने समूचे समाज को पाप से लिप्त कर भवभ्रमण के चक्र में धकेल देना ।
अपने श्रीशजय, श्रीगिरनार, श्रीसमेतशिखरजी आदि एक-एक तीर्थ भी ऐसे विशाल व प्रभावक हैं कि उनके जीर्णोद्धार का काम शुरु किया जाए तो शायद कई बरसों तक चले और उसमें अरबों रुपये लग जाए । देवद्रव्य अधिक है ही कहाँ कि उस पर नजर बिगाड़ी जाए ? एक महापुरुष ने भारपूर्वक कहा था कि - "पुण्यशालियों ! देवद्रव्य अपनी सगी माँ जैसा परमपवित्र है । इस पर कभी बुरी नजर मत डालो । अपने निजी कार्य में या समाज के कार्य में कभी भी, भूलचूक से भी देवद्रव्य का एक पैसा भी इस्तेमाल मत करना । यह एक ऐसा महापाप है कि जो आपको और आपकी औलादों को जनमोंजनम तक दुःखी-महादुःखी करता रहेगा ।"
हो सके तो देवद्रव्य में वृद्धि करना, न हो सके तो उसका रक्षण करना, पर उसका नाश या उपभोग तो कभी मत करना । १४६
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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