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________________ इस प्रकार के अनेक शास्त्र पाठ विद्यमान होने पर भी और ऐसे पाठ अनेक बार प्रस्तुत करने पर भी, इस प्रकार का प्रचार चल रहा है और चलाया जा रहा है। स्वनाम धन्य सिद्धांतमहोदधि पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज की तारक निश्रा में प्रस्तुत विषय पर सुंदर प्रकाश डालने वाला एक अति मानवीय प्रवचन इस समय प्रकाशित किया जा रहा है। यह प्रवचन विक्रम संवत २००६ की साल में पालिताणा के चातुर्मास में पूज्यपाद प्रवचनकार श्रीमद विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा ने किया था जो उस समय 'जैन प्रवचन' साप्ताहिक में और उसके बाद 'चारगति के कारण' पुस्तक में प्रकाशित हुआ था। इस प्रकार आजसे ५३ (६०) वर्ष पूर्व किया गया यह प्रवचन वर्तमान परिस्थिति में आज भी उतना ही प्रासंगिक, मार्गदर्शक और उपकारक है। जो भी वाचक पूर्वाग्रह का सर्वथा त्याग करके मुक्त मन से सत्य प्राप्त करने की भावना से इस प्रवचन का पठन करेगा, उसे सत्यमार्ग प्राप्त होगा। ऐसा विश्वास किंचित भी अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा । x x x देवद्रव्य में से श्रावकों द्वारा पूजा कराने की बातें : आज इतने अधिक जैन जीवित होने पर भी और उनमें भी समृद्धशाली जैनों के होने के बावजूद एक ऐसा शोर उठ रहा है कि 'इन मंदिरों की रक्षा कौन करेगा? देखरेख कौन करेगा? भगवान की पूजा के लिए केसर आदि चाहिए वह कहाँ से लाएंगे ? स्वयं हाती भगवान की पूजा में देवद्रव्य का उपयोग क्यों नहीं हो सकता ? आज ऐसा भी प्रचार चल रहा है कि 'भगवान की पूजा में देवद्रव्य का उपयोग करने लगो ।' कई स्थानों पर तो ऐसे लेख भी लिखे जाने लगे हैं कि 'मंदिर की आवक में से पूजा की व्यवस्था करिए।' इस प्रकार का पढ़कर या सुनकर मन में यह भाव आते हैं कि क्या जैनों का अस्तित्व खत्म हो गया है ? देवद्रव्य पर सरकार की नजर बिगड़ गयी है इस प्रकार कहा जातां है। परंतु आज बातें तो ऐसी हो रही हैं कि देवद्रव्य पर जैनों की नीयत बिगड़ी है, ऐसा लगता है । अन्यथा भक्ति स्वयं को करनी है और उसके हेतु देवद्रव्य का उपयोग करना है, यह किस तरह हो सकता है ? आपत्ति काल में देवद्रव्य में से भगवान की पूजा की जाय, यह अलग बात है और श्रावकों को पूजा करने की सुविधा देवद्रव्य में से दी जाए, यह अलग बात है। जैन क्या इतने गरीब हो गये हैं कि स्व- द्रव्य से भगवान की 'द्रव्यपूजा नहीं कर सकते हैं? इस हेतु देवद्रव्य में से उनके द्वारा भगवान की पूजा करानी है ? धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? १३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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