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________________ जैनों के हृदय में यह बात होनी चाहिए कि 'मुझे अपने द्रव्य से ही भगवान की द्रव्य पूजा करनी है।' देवद्रव्य की बात तो दूर है परंतु अन्य श्रावक के द्रव्य से भी यदि पूजा करने को कहा जाय तो जैन कहते थे 'उसके द्रव्य से हम पूजा करें तो इसमें हमें क्या लाभ? हमें तो अपनी ही सामग्री से भक्ति करनी है ! ' श्रावक को द्रव्यपूजा क्यों करनी चाहिए ? आरंभ और परिग्रहग्रस्त यदि शक्ति होने पर भी द्रव्य पूजा के स्थान पर भाव पूजा करता है तो वह पूजा बाँझ मानी जायेगी । श्रावक परिग्रह के विष को दूर करने के लिए भगवान की द्रव्यपूजा करें। परिग्रह का जहर तीव्र है न? उस ज़हर को उतारने के लिए द्रव्यपूजा है। मंदिर में जाएं और कोई केसर की कटोरी दे, उससे पूजा करें, तो इससे क्या परिग्रह का जहर उतरेगा ? स्वयं के द्रव्य का उपयोग होता हो तो मन में यह भाव हो 'मेरा धन शरीरादि के लिए तो खूब उपयोग में आया। उसमें जाने वाले धन से पाप में वृद्धि होती है। जब कि तीन लोक के नाथ की भक्ति में यदि मेरे धन का उपयोग हो तो वह सार्थक है ।' स्वयं के द्रव्य से पूजा करने में भाव वृद्धि का जो प्रसंग है वह अन्य के द्रव्य से पूजा करने में नहीं । यदि भाव पैदा करने का कारण ही न हो तो भाव पैदा हों ही कैसे ? धनहीन श्रावक सामायिक लेकर जिन मंदिर जाए : सभा : सुविधा के अभाव में जो जिन पूजा किए बिना रह जाते हों, उन्हें यदि सुविधा दी जाए तो लाभ होगा ऩ? जिन पूजा करने की सुविधा कर देने का मन हो ये तो अच्छी बात है। आपको यों होगा कि 'हम तो अपने द्रव्य से प्रतिदिन जिनपूजा करते हैं, परंतु अनेक श्रावक ऐसे हैं जिनके पास सुविधा नहीं । ऐसे लोग भी जिनपूजा के लाभ से वंचित न रह जाएँ तो अच्छा।' ऐसा विचार आपके लिए शोभास्पद है। परंतु ऐसे विचारों के साथ यह भी विचार आने चाहिए कि 'स्वयं के द्रव्य से जिनपूजा करने की जिनके पास सुविधा नहीं है, उन्हें अपने द्रव्य से सुविधा कर देनी चाहिए।' इस प्रकार के भाव मन में आते ही 'जिनके पास पूजा करने की सुविधा नहीं, वे भी पूजा करने वाले बनें इस हेतु हमें अपने द्रव्य का व्यय करना है'- ऐसा निर्णय यदि आप करें, तो वह आपके लिए लाभ का कारण है। परंतु जिन पूजा करने वाले का स्वयं का मनोभाव कैसा हो उसकी यहाँ चर्चा चल रही है। | १४० Jain Education International धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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