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________________ ज्ञात्वेति जिन-निर्ग्रन्थ-शास्त्रादीनां धनं नहि । गृहीतव्यं महापाप-कारणं दुर्गति-प्रदम् ।।३।। इस प्रकार जान करके देवद्रव्य, गुरुद्रव्य और ज्ञानादि का द्रव्य ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह महा-पाप का कारण और दुर्गति देनेवाला है । भक्खणं देव-दव्वस्स परत्थी-गमणेण च । सत्तमं णरयं जंति सत्त वाराओ गोयमा ।। हे गौतम ! जो देवद्रव्य का भक्षण करता है और परस्त्री का गमन करता है, वह सात बार सातवीं नरक में जाता है । श्री शत्रुजय-माहात्म्य में कहा है कि - देवद्रव्यं गुरुद्रव्य दहेदासप्तमं कुलम् । अङ्गालमिव तत् स्प्रष्टुं युज्यते नहि धीमताम् ।। . देवद्रव्य और गुरुद्रव्य का भक्षण सात कुल का नाश करता है । इसलिए बुद्धिमान् को उसको अंगारे की तरह जान करके छूना भी नहीं चाहिए - अर्थात् तुरन्त दे देना चाहिए। देवाइ-दवणासे दंसणं मोहं च बंधए मूढा । उम्मग्ग-देसणा वा जिन - मुनि - संघाइ - सत्तुव्व ।। देवद्रव्य का नाश करनेवाला, उन्मार्ग की देशना देनेवाला मूढ़ जिन, मुनि और संघादि का शत्रु है और दर्शन - मोहनीय कर्म का बंध करता है । जं पुणो जिण-दव्वं तु वृद्धिं निंति सु-सावया । ताणं रिद्धी पवड्ढेइ कित्ति सुख-बलं तहा ।। पुत्ता हुंति सभत्ता सोंडिरा बुद्धि-संजुआ । सकललक्खण संपुन्ना सुसीला जाण संजुआ ।। देवद्रव्यादि धर्म द्रव्याणि की व्यवस्था करनेवाला, प्रभु की आज्ञानुसार नीतिपूर्वक देवद्रव्यादि को बढ़ाता है, उनकी ऋद्धि कीर्ति, सुख और बल बढ़ता है और उनके पुत्र भक्त, बुद्धिमान्, बलवान् सभी लक्षणों से युक्त और सुशील होते हैं । एवं नाउण जे दव्वं वुट्टि निंति सुसावया । जरा-मरण-रोगाणं अंतं काहिंति ते पुणो ।। इस प्रकार जान करके जो देवद्रव्य को नीतिपूर्वक बढ़ाने वाले होते हैं, वे जन्म, मरण, बुढापा और रोगों का अंत करते हैं । | ९८ धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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