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सावधानी एवं सतर्कता से जायजा सुश्रावकों ने लिया है । उसमें कहीं भी बर्ख बनाने हेतु ‘मांस' पदार्थ का इस्तेमाल होना ज्ञात नहीं हुआ है ।
बर्ख बनानेवाले कारीगर निश्चित प्रकार के कागज से बनी किताब बनाते हैं । उसके एक-एक पन्ने के बीच चांदी या सोने का पतरा रख कर, किताब को बंद कर, बाहर चमड़े के जाड़े पटल रखकर उसे हथोड़े से ठोकते हैं । इस तरह बर्ख बनते हैं । इस समूची प्रोसेस में चांदी / सोने के पतरे (बर्ख) को कहीं भी, कभी भी चमड़े का स्पर्श नहीं होता है । अतः हर स्थान पर बनते बर्ख हेतु बर्ख मांसाहारी है - अभक्ष्य है - भगवान की आंगी या मीठाई के ऊपर लगा नहीं सकते' ऐसी बातें करना गलत है । फिर भी किसी स्थान पर उसी प्रकार से बर्ख बनाते हों, तो पूरी जांच कर शुद्ध बर्ख का इस्तेमाल करना चाहिए । _ 'चमड़े से स्पर्श हो जाने भर से वस्तु अभक्ष्य-अपवित्र बन जाए' ऐसा कोई नियम जैनशासन का नहीं है । कुछ वर्षों पूर्व मारवाड़-कच्छ आदि प्रदेशों में पीने का पानी चमड़ो से बनी पखालों में आता था । पूजा में भी यह जल प्रयुक्त होता था । घी रखने के बर्तन चमडो के बने रहते थे । हरेक धर्म के मन्दिरों में व जैनमंदिरों में ढोल-नगाडातबला आदि संगीत के साधनों में चमड़े का उपयोग होता था, आज भी होता है । अतः केवल चमड़े का स्पर्श हो जाने भर से बर्ख “अपवित्र, अभक्ष्य, इस्तेमाल नहीं करने योग्य" ऐसा कोलाहल मचाना योग्य नहीं है । ऐसा करके वे जिनभक्ति आदि के एक तारक आलंबन से संघ को वंचित रखने का महादोष भी कर रहे हैं, ऐसा कहें तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं है ।
शंका-४५ : बर्ख परमात्मा की अंगरचना में प्रयुक्त होता है, सो प्रभु की शोभा को बढ़ाने के लिए ही इसकी क्या आवश्यकता है ? अंगरचना - रहित प्रतिमा ज्यादा खूबसुरत लगता है । सामान्य जन तो अंगरचना की ही प्रशंसा करते हैं और परमात्मा को भूल जाते हैं ।
समाधान-४५ : भगवान की प्रतिमा के माध्यम से भगवान के जीवन की हरेक अवस्था का चिंतन करने की जिनाज्ञा है । जो चैत्यवंदन महाभाष्य आदि ग्रंथों में स्पष्टरूप से कही गई है । परमात्मा की अनेक अवस्थाओं में से ही एक अवस्था है - 'राज्यावस्था' । इसका भावन करने के लिए ही आंगी अंगरचना का विधान है । | ८२
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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