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पूर्वकाल में जैनाचार्यों द्वारा असत्य का प्रतिकार करने के लिए राज्याश्रय से चलती कोटों में जाने के अनेक प्रसंग इतिहास में उत्कीर्ण हैं ।
आठ प्रभावक जैनाचार्यों में एक ‘वादी' नामक प्रभावक हैं । सत्य-सिद्धांत रक्षा के प्रसंग पर ऐसे वादीजन राजा की कोर्टों में जाकर असत्य-वादियों को परास्त कर जैनशासन का विजयध्वज लहराते थे ।
वीतराग जैसे स्वयं वीतराग परमात्मा को भी ऐसे श्रेष्ठ वादियों की पर्षदा होती थी । यह सब इतना स्पष्ट होने पर भी 'कोर्ट' के नाम से संघ के अबुध आराधकों को भड़काने की कोशिश करना कितना उचित है ? यही विचारणीय है ।
शंका-४४ : फिलहाल कुछ स्थानों पर 'बर्ख मांसाहार है' इस आशय को जताते चतुरंगी छवियों से भरे चौपन्ने धड़ल्ले से बांटे जा रहे हैं; उनमें दावे से साथ कहा गया है कि - बर्ख मांसाहारी चीज़ है' तो क्या यह बात सत्य है ? क्या बर्ख इस्तेमाल करने से या खाने से मांसाहार का पाप लगता है ? क्या भगवान की आंगी में इसका इस्तेमाल किया जाए ?
समाधान-४४ : 'बर्ख मांसाहार है' ऐसा प्रचार बिल्कुल खोखला व न्यायहीन है । अहमदाबाद व मुंबई में भी बर्ख बरसों से बनते हैं । इसके ग्राहक ज्यादातर जैन ही हैं । कई जैन अग्रणी तो होलसेल में बर्ख रखते हैं । इस हेतु वे हमेशा बर्ख बनानेवाले कारीगरों से सम्पर्क किए रहते हैं । उनकी दुकानों-कारखानों में भी अनेकबार आते-जाते करते रहते हैं । अहमदाबाद में तो बर्ख-निर्माण का कार्य रोड़ से गुजरते आसानी से नजर आता है । इन सभी जैनों की आंखों में धूल फेंककर “बर्ख बनाने हेतु मांसआंत आदि का इस्तेमाल होता है" ऐसा मानना
अतिशयोक्तिपूर्ण है । कहीं कभी-कभार वैसे ही बनता है - ऐसे कहना योग्य नहीं है । कुछेक सालों पहले अनेक आचार्यदेवों ने एक-आवाज से 'बर्ख मांसाहारी' होने की बात को नकारा था ।
प्रतिष्ठा के प्रसंग पर धातु के भगवानों को तथा ध्वजादण्ड-कलश आदि को सोना चढ़ाया जाता है । यह सोना सोने का बर्ख बनाकर चढ़ाया जाता है । इसलिए बर्ख बनानेवाले कारीगरों को नियुक्त किया जाता है । इन कारीगरों को काम करते कईयों ने देखा है । उनके कार्य में किन-किन चीजों का इस्तेमाल होता है ? - इसका काफी धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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