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________________ ६४/६८७ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन को सिद्ध करनेवाले प्रमाण का अभाव है - वह इस प्रकार से है - क्या भूत से अतिरिक्त आत्मा की सत्ता सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्षप्रमाण प्रवर्तित है या अनुमानप्रमाण प्रवर्तित है ? उसमें प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा भूत से अतिरिक्त आत्मा की सिद्धि होती है, - वैसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण प्रतिनियत क्षेत्र में रहे हुए इन्द्रियसंबद्ध रुपादि स्थूल पदार्थो को विषय करता है। उससे विलक्षण जीव (आत्मा) प्रत्यक्षप्रमाण का विषय बनता नहीं है। इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती है। अर्थात् प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा भूत से अतिरिक्त आत्मा की सत्ता सिद्ध नहीं होती है। शंका : इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आत्मा की चाहे प्रतीति न होती हो । परंतु "मैं घट को जानता हुँ।" इत्याकारक प्रतीति में जो अहम्प्रत्ययिक भान होता है। उसमें वह स्वसंवेदन ज्ञान के कर्ता के रुप में भूत से अतिरिक्त आत्मा प्रतिभासित होता है। अर्थात् “मैं घट को जानता हुँ।" इस स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा जाननेरुप क्रिया के कर्ता के रुप में आत्मा प्रतिभासित होता ही है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष पृथ्वी इत्यादि भूतो का नहीं होता है। इसलिए पाँचभूतो से आत्मा विलक्षण है। तथा "मैं हुँ" ऐसा अहम्प्रत्यय ही आत्मा की सत्ता सिद्ध करने का प्रबल साधन है। समाधान (चार्वाक): "अहम्प्रत्ययिक" प्रतीति आत्मा की सत्ता सिद्ध करने का प्रबल साधन है - ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जैसे "मैं स्थूल हुँ" "मैं कृश हुँ" इत्याकारक प्रतीति में शरीर ही विषय बनता है। परंतु इस प्रतीति में आत्मा आलंबनभूत बनता नहीं है। क्योंकि आत्मा में स्थूलता इत्यादि धर्मो का संभव नहीं है। उस अनुसार से "मैं घटको जानता हुँ।" इत्याकारक प्रतीति में भी आपने द्वारा परिकल्पित शरीर से अतिरिक्त आत्मा स्वप्न में भी आलंबनभूत बनता नहीं है। परन्तु शरीर ही आलंबनभूत बनता है और जो प्रतीत न होता हो उसकी भी कल्पना करने में कल्पनागौरव नाम का दोष आ जाता है। तथा प्रतिनियतपदार्थो की व्यवस्था नष्ट हो जाती है। शंका : "अहम्प्रत्यय" में शरीर ही आलंबन भूत है। परंतु आत्मा आलंबनभूत नहीं है। ऐसी बात भी योग्य नहीं है। क्योंकि जडरुप शरीर को "मैं घट को जानता हुँ।" इत्याकारक ज्ञान में प्रतीत होता अहम्प्रत्यय होना संगत होता नहीं है । कहने का मतलब यह है कि जिसमें चैतन्य हो उसको ही "अहम्प्रत्ययिका" प्रतीति होती है। परंतु जो चैतन्यशून्य हो, उसको तादृशप्रतीति होती नहीं है। समाधान (चार्वाक) : चेतना के योग से शरीर भी चैतन्यसंयुक्त होता है । इसलिए "अहम्प्रत्ययिका" प्रतीति शरीर में होने में बाध नहीं है। शंका : उस चेतना का कर्ता जीव होता है । इसलिए सचेतनजीव ही बन सकेगा और इसलिए "अहम्प्रत्ययिका" प्रतीति आत्मा में ही होती है, ऐसा मानना ही पडेगा । समाधान (चार्वाक): जीव चेतना का कर्ता है - यह आपकी बात उचित नहीं है, क्योंकि आत्मा विद्यमान ही नहीं है। अर्थात् आत्मा जैसी कोई चीज प्रतीत नहीं होती है। इसलिए चेतना के कर्ता के रुप For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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