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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ५३/६७६ शरीरबलापचयः क्षुदुद्भवपीडा च भवत्येव । न चाहारग्रहणे तस्य किंचित्क्ष्यते केवलमाहोपुरुषिकामात्रमेवेति । व्याख्या का भावानुवाद : उत्तरपक्ष ( श्वेतांबर ): आपने पहले जो केवलि के कवलाहार के निषेध के लिए कारणाभाव हेतु कहा था, वह हेतु असिद्ध है। क्योंकि आहार के कारणरुप वेदनीयकर्म का उदय केवलज्ञानि को भी होता है। उपरांत केवलज्ञानि केवलज्ञान पाने से पहले शरीर होने के कारण कवलाहार करते थे. तो क्या केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद केवलज्ञानि को शरीर नहीं होता कि जिससे केवलज्ञानि को कवलाहार की जरुरत नहीं है! केवलज्ञानि के कवलाहार की सिद्धि करनेवाला अनुमानप्रयोग इस अनुसार से है - "केवलज्ञानि को भोजन (कवलाहार) होता है, क्योंकि कवलाहार करने में कारणरुप समग्रसामग्री विद्यमान है । जैसे केवलज्ञान प्राप्त होने से पहले होता भोजन (कवलाहार)।" __ शरीर की पूर्णता, वेदनीयकर्म का उदय, आहार के पाचन में निमित्तभूत तैजस शरीर और दीर्घ आयुष्य, ये कवलाहार में निमित्तभूत सामग्री है। यह तमाम सामग्री केवलज्ञानि को भी होती है। उपरांत "केवलज्ञानि का वेदनीय कर्म जले हुए जैसा शक्तिहीन होता है।" वैसा आपने कहा था वह भी अनागमिक और युक्तिरहित है। क्योंकि आगम में केवलज्ञानि को भी अत्यंत साता वेदनीयकर्म का उदय होता है, ऐसा प्रतिपादन किया है। उपरांत केवलज्ञानि के कवलाहार को सिद्ध करती हुई युक्ति भी है - "यदि घातिकर्म के क्षय से संपूर्ण कोटी के ज्ञानादि का उदय केवलज्ञानि को हो तो वेदनीय कर्म के उदय की विद्यमानता में केवलज्ञानि को क्यों भूख न लगे? भूख लगती हो तो कवलाहार का निषेध क्यों किया जाता है ? अर्थात् वेदनीयकर्म का उदय केवलज्ञानि को होने से उनको भी कवलाहार लेना संगत ही है। जैसे छाया और आतप (धूप) एकसाथ नहीं रह सकते तथा जैसे भाव और अभाव परस्पर परिहारस्वरुप है। अर्थात् भाव अभाव का परिहार करके अपना सद्भाव स्थित करता है और अभाव भाव का परिहार करके अपनी सत्ता सिद्ध करता है। इस प्रकार जैसे छांव और धूप (छाया और आतप) को तथा भाव और अभाव को एकसाथ रहने में विरोध है। वैसे प्रकार का विरोध केवलज्ञानादि और क्षुधा को एकसाथ रहने में नहीं है। साता और असातारुप वेदनीयकर्म का उदय अंतर्मुहूर्त से बदलता है। इसलिए सातावेदनीय कर्म के उदय की तरह असातावेदनीयकर्म का उदय भी होता ही है। तथा केवलज्ञानी को अंनतवीर्य होने पर भी शरीर के बल का अपचय और क्षुधा वेदनीय की पीडा भी होती ही है। ___ इसलिए केवलज्ञानि को भोजन करने मात्र से कुछ बिगडता नहीं है। मात्र केवलज्ञानि को कवलाहार न मानने में आपका कदाग्रह काम करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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