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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (गुरूसम्मतपदार्थाः) ६६५/१२८७ समाधान-स्वप्न प्रपञ्च यदि सद्विलक्षण है, तब नर-शृङ्गादि के समान उसकी प्रतीति न हो सकेगी और यदि असद्विलक्षण है, तब चिदात्मा के समान उसका कभी बाध न हो सकेगा । इस प्रकार स्वप्न प्रपञ्च को सदसद्विलक्षण मानने पर भी ख्याति और बाध की उसमें अनुपपत्ति ही बनी रहती है, अतः यह जो कहा गया है कि 'ख्याति और बाध की अन्यथानपपत्ति के कारण ही स्वप्न प्रपञ्च को सत और असत-उभय से विलक्षण माना जाता है, वह कहना नितान्त असंगत है । फलतः सदसद्विलक्षणत्व की अप्रसिद्धि के कारण उक्त प्रपञ्च-मिथ्यात्वसाधक अनुमान में अप्रसिद्धविशेषणता' दोष यथावत् विद्यमान है । कथित तृतीय विकल्प के अनुसार बाध्यत्व को भी मिथ्यात्व नहीं कह सकते, क्योंकि जाग्रत्प्रपञ्च का कोई बाधक प्रमाण उपलब्ध नहीं । उक्त मिथ्यात्व-साधक अनुमान ही बाधक प्रमाण है-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उक्त अनुमान जाग्रत्प्रपञ्चविषयक प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा बाधित होने के कारण वह्निगत शैत्यानुमान के समान उत्थित ही नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि, प्रपञ्च का प्रतिभास मिथ्या है, अतः उक्त अनुमान का बाध न हो सकने के कारण उत्थान सम्भव है। तो ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि प्रपञ्च-प्रतिभास के मिथ्या होने पर उक्त प्रपञ्चमिथ्यात्व-साधक अनुमान का उत्थान और उक्त अनुमान का उत्थान हो जाने पर प्रपञ्चप्रतिभास में मिथ्यात्व-ऐसा अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होता है । इसी प्रकार अद्वैत श्रुतियों के उत्थान में भी अन्योन्याश्रय दोष दिखाया जा सकता है, अतः अद्वैत-श्रुतियों का भी अपने यथाश्रुतार्थ में प्रामाण्य सम्भव नहीं, उनसे प्रपञ्च-मिथ्यात्व सिद्ध नहीं हो सकता । श्री चिदानन्द पण्डित ने (नीति० पृ० ११५ पर) स्पष्ट कहा है- न प्रपञ्चो मिथ्येति जाड्यदृश्यत्वहेतुतः । स्वप्नप्रपञ्चवत् साध्यं मिथ्यात्वस्यानिरूपणाद् ।। फलतः अबाधित प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा भाट्टाभिमत (१) द्रव्य, (२) जाति, (३) गुण, (४) कर्म और (५) अभाव-इन पाँच पदार्थों की सत्यता सिद्ध हो जाती है । (पूर्वमीमांसा दर्शन में श्रीकुमारिल के भाट्ट मत की तरह श्री प्रभाकर मिश्र का 'गुरुमत' प्रसिद्ध है । अब यहाँ गुरुसम्मत पदार्थो को पेश करते है ।) गुरुसम्मतपदार्थाः १-पदार्थाः - द्रव्यजातिगुणाः कर्म संख्यासादृश्यशक्तयः । समवाय इतीमेऽष्टी पदार्था गुरुसम्मताः ।।१।। (१) द्रव्यम्-तेषां लक्षणमुच्यते-तत्र सामान्यतो दृष्टमनुमानं लक्षणवचनस्यार्थः । पृथिव्यादिमनोऽन्तम्, गुणादिभ्यो भिद्यते, तेभ्यो व्यावृत्तधर्मकत्वाद्, यद् यतो व्यावृत्तधर्मकम्, तत् ततो भिद्यते, यथा शीताद् व्यावृतधर्मकमुष्णम् । भूजलाग्निमरुद्व्योमकालदिचित्तचेतनाः । नव द्रव्याणि लक्ष्यन्ते स्वात्मजारम्भकत्वतः ।।२।। तमस्तु नास्त्येव, आलोकाभावरूपत्वात् (२) गुण:-रूपरसगन्धस्पर्शशब्दपरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहसंस्कारबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्माः त्रयोविंशतिरेव गुणाः ।। (३) कर्म-कर्म एकमेव, उपाधितोऽनेकत्वम् । (४) सामान्यम्सामान्यं द्विविधं परमपरं च, वृक्षत्वशिंशपात्वभेदात् । (५) शक्तिः -शक्तिरनेका, कार्यानुमेयत्वात् । (६) संख्यागणितव्यवहारहेतुः एकत्वादिपरार्द्धपर्यन्ता संख्या । (७) सादृश्यम्-सादृश्यज्ञानविषयत्वं सादृश्यं बहुविधम्, तद्व्यञ्जकसाधर्म्यभिन्नत्वात् । (८) समवायः-समवायस्त्वनेक एवेति । २-द्रव्याणि:-द्रव्यलक्षणम्-संयोगाश्रयत्वम्, विभागश्रयत्वं वा, परिमाणाश्रयत्वं वा । (१) पृथिवी-भूलक्षणम्-पाकजस्पर्शाश्रयत्वम्, पाकजरूपाश्रयत्वं वा, पाकजरसाश्रयत्वं वा, गन्धाश्रयत्वं वा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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