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________________ ६५८ / १२८० षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् ) सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि, यदि कर्म का प्रत्यक्ष नहीं माना जाता, तब कर्म ही सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि संयोग और विभाग को अपने असमवायिकारण मात्र की अपेक्षा होती है, वह असमवायिकारण कर्म न होकर प्रयत्नवदात्मसंयोग ही हो जायेगा, कर्म कल्पना की क्या आवश्यकता ? शङ्का-संयोगरूप असमवायिकारण (१) स्वाश्रय या (२) स्वाश्रयसमवेत पदार्थ में ही कार्य का आरम्भक होता है, जैसे (१) तन्तुसंयोग रूप असमवायिकारण स्वाश्रयीभूत तन्तुओं में ही पट का और (२) प्रचित (फुलाई हुई) रुई के अवयवों का संयोगरूप असमवायिकारण स्वाश्रयसमवेत अवयवीरूप रुई - पिण्ड में महत्त्व परिमाण का आरम्भक माना जाता है । किन्तु प्रयत्नवदात्मसंयोग स्वाश्रय और स्वाश्रय-समवेत से भिन्न देश में संयोगरूप कार्य क्योंकर उत्पन्न कर सकेगा ? अतः कर्म ही संयोग का असमवायिकारण हो सकेगा और उस संयोगरूप कार्य से कारणीभूत कर्म का अनुमान किया जा सकेगा, फलतः कर्म को अप्रत्यक्ष मानने पर भी कर्म की सिद्धि हो जाती है, असिद्धि नहीं । समाधान-संयोग केवल स्वाश्रय या स्वाश्रय-समवेत में ही कार्य का जनक नहीं होता, अपितु अन्यत्र भी कार्य का उत्पादक होता है, जैसे अणु-द्वय का संयोग स्वाश्रय और स्वाश्रय-समवेत से भिन्न तृतीय अणु में भी अपने संयोगरूप कार्य का जनक होता है । फलतः प्रत्यक्ष प्रमाण से ही कर्म की सिद्धि होती है, कर्म का प्रत्यक्ष न मानने पर उसकी असिद्धि ही हो जायेगी । इत्थं भावपदार्थानां स्वरूपे सुनिरूपिते । अभावाख्यं पदार्थं च पञ्चम चिन्तयामहे ।।४७ ।। प्रागभावादिभेदेन चतुधैव विभागवान् । षष्ठप्रमाणविज्ञेयः पदार्थोऽभाव उच्यते ।।४८ ।। क्षीरे यो दध्यभावः स इह निगदितः प्रागभावः प्रवीणैः प्रध्वंसाभावमाहुर्दधनि तु पयसोऽभावमाचार्यपादाः । अत्यन्ताभावसंज्ञो भवति हि पवनाद्येषु रूपाद्यभावश्चोन्योन्याभावमाशु स्फुटयति तु घटादौ पटत्वाद्यभावः । । ४९ ।। अभावाख्यः पदार्थस्तु नास्तीत्याह प्रभाकरः । घटाद्यभावस्तत्पक्षे केवलं भूतलं मतम् ।। ५० ।। मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत् योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः । अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्ध्येति सौत्रान्तिकः प्रत्यक्षं क्षणभङ्गुरं च सकलं वैभाषिको भाषते । । ५१ ।। (५) अभाव-भावरूप पदार्थों का स्वरूप निरूपित हो जाने पर अभावाख्य पञ्चम पदार्थ का विचार प्रस्तुत किया जा है । रहा शङ्का - अभी तक सभी भाव पदार्थों का निरूपण नहीं हुआ, कुछ अवशिष्ट रह गए हैं, जैसे कि प्राभाकरगण कहते हैं-(१) द्रव्य, (२) गुण, (३) कर्म, (४) जाति, (५) शक्ति, (६) सादृश्य, (७) संख्या और (८) समवाय-ये प्रभाकरसम्मत आठ पदार्थ हैं । वैशेषिक छः भाव पदार्थ मानते हैं - (१) द्रव्य, (२) गुण, (३) कर्म इन तीनों में रहनेवाली (४) जाति, (५) विशेष और (६) समवाय । श्री वरदराजने तार्किकरक्षा ( पृ० १३०) में कहा है- द्रव्यं गुणस्तथा कर्म, जातिश्चैतत्त्रयाश्रया । विशेषः समवायश्च पदार्थाः षडिमे मताः ।। नैयायिक लोग सोलह पदार्थ मानते हैं - ( १ ) प्रमाण, (२) प्रमेय, (३) संशय, (४) प्रयोजन, (५) दृष्टान्त, (६) सिद्धान्त, (७) अवयव, (८) तर्क, (९) निर्णय, (१०) वाद, (११) जल्प, (१२) वितण्डा, (१३) हेत्वाभास, (१४) छल, (१५) जाति और (१६) निग्रहस्थान । इनके तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है । जब इतने भाव पदार्थों का निरूपण अभी तक मानमेयोदय में नहीं किया गया, तब कैसे विगत श्लोक ४७ में कह दिया गया- “इत्थं भावपदार्थानां स्वरूपे निरूपिते" । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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