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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) ६५७/१२७९ समाधान-यदि भिन्न-भिन्न वस्तुओं का संयोग और विभाग कर्म का जनक माना जाता है, तब एक श्येन पक्षी का विभाग और दूसरे का संयोग हो जाने पर स्थाणु में कर्म का अनुमान होना चाहिये । एवं नदी-प्रवाह के मध्य में अवस्थित के साथ जल के विभिन्न अवयवों का संयोग-विभाग देखा जाता है, अतः उस स्तम्भ में कर्म का अनुमान क्यों नहीं होता ? शङ्का-जिसमें अन्यत्र क्रिया की पहले कल्पना की जा चुकी है, ऐसे श्येन पक्षी के संयोग-विभाग से श्येन में ही कर्म की कल्पना जब कर ली गई, तब उसी के कर्म से स्थाणु में संयोग-विभाग उपपन्न हो जाते हैं, उससे पृथक् स्थाणु में कर्मकल्पना की आवश्यकता नहीं रह जाती । समाधान-श्येन पक्षी में पहले भी कभी कर्म का निश्चय तब तक सम्भव नहीं होता, जब तक कर्म को प्रत्यक्ष का विषय न मान लिया जाय, क्योंकि उडते हुए पक्षी का जो आकाश के साथ संयोग और विभाग होता है, उसका भी आप (प्राभाकर) को प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि आप आकाश को प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते, तब उस संयोग-विभाग के द्वारा श्येन में कर्म की कल्पना नहीं की जा सकती । यदि आकाशगत तैजस अवयवों के साथ श्येन के संयोग और विभाग दृष्टिगोचर हो सकते हैं. तब उन्हीं के द्वारा तेजो धात में कर्म की कल्पना प्रसक्त होती है । इस प्रकार क्रिया की कल्पना हो जाने के कारण आप (प्राभाकर) के मत में कौन स्थावर (क्रिया-रहित) है और कौन जङ्गम (क्रियावान्) है-यह कहना भी सम्भव नहीं । दूसरी बात यह भी है कि, आप (प्राभाकर) अन्धकार को अत्यन्ताभावरूप मानते हैं, अत: संयोग और विभाग का दर्शन सम्भव नहीं, तब 'अन्धकारे खद्योत: पतति'-ऐसी प्रतीति का कोई आधार नहीं रह जाता है । खद्योतगत तैजस अवयवों के साथ भी खद्योत के संयोग-विभाग का उपपादन नहीं किया जा सकता, क्योंकि खद्योत का स्वगत तैजस अवयवों के साथ कभी विभाग सम्भव नहीं । यदि कहा जाय कि, खद्योत कभी पूर्व, कभी दक्षिण, कभी पश्चिम और कभी उत्तर दिशा में चमकता है, नेत्र उसे घूमघूम कर देखते हैं, उसी से खद्योत के संयोग-विभागों का अनुमान और उनसे कर्म का अनुमान हो जाता है । तो वैसा नहीं कह सकते, क्योंकि यदि विविध दिशाओं में न चमक कर वह नेत्र की सीघ में बराबर उड रहा है, तब संयोग-विभाग का अनुमान कैसे होगा ? इस प्रक्रिया में भी पूर्वोक्त दोष से पीछा नहीं छूटता कि उन्हीं दैशिक संयोग विभागों के द्वारा दिशा में कर्म की कल्पना प्रसक्त होती हैं । 'दिगादि विभु हैं, उनमें कर्म की कल्पना क्योंकर होगी ?' इस प्रश्न के उत्तर में इतना कह देना पर्याप्त है कि अभी तक विभु पदार्थ अक्रिय हैं-यह ही सिद्ध नहीं हो सका है। चलती हुई नौका में नीचे नेत्र करके नौका के अन्दर ध्यान रखने पर नौका में जो निष्क्रियता प्रतीत होती है, वह अतिसामीप्य दोष के कारण भ्रम है । दूरस्थ नौका में भी जो स्थिरता प्रतीत होती है, वह दूरत्व दोष निमित्तक भ्रम माना जाता है, क्योंकि अत्यन्त दूर होने के कारण नौका का पूरा परिमाण भी नहीं प्रतीत होता, अतः (१) विषयरूप अवयवी के साथ इन्द्रियरूप अवयवी का, (२) विषयावयव के साथ इन्द्रिय के अवयवों का, (३) विषयावयव के साथ इन्द्रियरूप अवयवी का एवं (४) विषयरूप अवयवी के साथ इन्द्रियावयवों का संयोग-इन चार प्रकार के संयोगों का अभाव ही उक्त स्थलों पर कर्म की अप्रतीति का कारण होता है, संयोग-विभाग का अदर्शन नहीं । दूसरी बात यह भी है कि, शबरस्वामी ने जो कहा है-"देवदत्तस्य गतिपूर्विका देशान्तरप्राप्तिमवलोक्य आदित्येऽपि गतिस्मरणम्" (शा.भा.पृ० ३७) यह भाष्य भी कुण्डलित (असङ्गत घोषित) कर देना होगा, क्योंकि जब दोनों में गति का अनुमान करना है, तब कौन दृष्टान्त बनेगा ? ऐसे भाष्य का पठन-पाठन उचित क्योंकर होगा, अत: कर्म की प्रत्यक्षता स्वीकार कर देवदत्त की गति का प्रत्यक्ष देख उसे दृष्टान्त बनाकर आदित्य में गति का अनुमान करना होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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