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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) ६५१/१२७३ भ्रमरूप भी नहीं कहा जा सकता । अबाधित ज्ञानों को भी भ्रमरूप मानने पर तो सभी प्रमा ज्ञान भ्रमात्मक हो जायेंगे। अत: 'घटः प्रकाशते'-इत्यादि व्यवहार ही अपना उपपादन करने कि लिए प्रकाश या प्राकट्य से विशिष्ट घटादि की कल्पना करते हैं । उसमें विशेषणीभूत प्रकाश पदार्थ ही प्राकट्य कहलाता है । (श्री चिदानन्द पण्डित भी कहते हैं-"सन्ति तावद् घटः प्रकाशते, घटो भाति, घटप्रकाश इत्यादयो व्यवहारा लौकिकपरीक्षकाणाम् अतो दृढप्रतिपन्नतादृशव्यवहारमूलत्वेन प्रकाशविशिष्टोऽर्थः कल्पनीयः, स च विशेषणभूतः प्रकाशपदार्थः, प्राकट्यम्" (नीति० पृ० १३२) । घटादिविषयक जन्य ज्ञान को ही प्रकाश पदार्थ क्यों नहीं मान लिया जाता ? इस शङ्का का समाधान यह है कि, घटादिविषयक ज्ञान आत्मा में रहता है, घटादि विषय पर नहीं, किन्तु 'प्रकाशितोऽयमर्थः'-इस प्रकार का व्यवहार घटादि विषय पर रहनेवाले प्रकाश पदार्थ से ही उपपन्न हो सकता है, आत्मसमवेत ज्ञान से नहीं । शङ्का-यदि प्राकट्य के आश्रय को ही विषय माना जाता है, तब अतीत और अनागत पदार्थों में विषयता नहीं बन सकती, क्योंकि वे प्राकट्य के आश्रय नहीं होते । 'अतीत और अनागत पदार्थ किसी ज्ञान के विषय ही नहीं होते'-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि नदी की बाढ़ से अतीत वृष्टिविषयक और काली घटा को उमड़ते देख के भावी वृष्टिविषयक जो अनुमान होते हैं, वे कैसे हो सकेंगे? समाधान-अतीत और अनागत विषयों पर भी ज्ञातता या प्राकट्य माना जाता है । 'जब अतीतादि द्रव्यरूप गुणी ही नहीं है, तब प्राकट्यरूप गुण की उत्पत्ति ही कैसे होगी ?' इस प्रश्न का उत्तर है कि, जैसे संख्यारूप गुणों की अतीतादि द्रव्य पर उत्पत्ति हो जाती है, वैसे ही प्राकट्य गुण भी उत्पन्न हो जायगा । 'अतीतादि पर संख्या की उत्पत्ति ही नहीं होता'-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि 'मुनित्रयं नमस्कृत्य', 'तिस्र आहुतयो हुताः', 'षडपूपा भक्षिताः', 'दश मोदका कार्या'-इत्यादि व्यवहारों के द्वारा अतीतादि पर संख्या की उत्पत्ति माननी पडती है । यदि नहीं मानी जाती, तब उक्त व्यवहारों को भ्रममूलक मानना होगा, किन्तु वे भ्रममूलक नहीं माने जाते, अतः उनके अनुरोध पर जैसे अतीतादि पर संख्या की उत्पत्ति मानी जाती है, वैसे ही प्राकट्यरूप गुण की उत्पत्ति भी माननी आवश्यक है (श्री चिदानन्द पण्डित के भी वे ही प्रश्न और उत्तर हैं-"कथं तर्हि भूतभविष्यतोः प्राकट्योत्पत्तिः ? संख्यावदेवेति ब्रूमः" (नीति० पृ० १३५) । इसी प्रकार अभाव भी प्राकट्य का आश्रय बन जाता है, अतः प्राकट्यरूप गुण सिद्ध हो जाता है । (२४) शक्ति-श्री कुमारिल भट्ट द्रव्य, गुण और कर्म में रहनेवाली, शक्तित्व जाति से युक्त शक्ति को श्रुति और अर्थापत्ति प्रमाण से सिद्ध करते हैं । वह शक्ति लौकिक और वैदिक भेद से दो प्रकार की होती है । लौकिक शक्ति अर्थापत्ति-गम्य होती है, जैसे अग्न्यादि में दाहकत्व-शक्ति । वैदिक शक्ति विधिवाक्यैकसमधिगम्य होती है, जैसे यागादि में स्वर्गादि-साधकत्व-शक्ति । दाहकत्वादि-शक्ति द्रव्यगत और स्वर्ग-नरकादि-साधकत्व-शक्ति शुभाशुभ कर्मगत मानी जाती है। "वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकामः" (तै० सं० २/१/१) इत्यादि वाक्यों के द्वारा श्वेतत्वादि गुण-विशिष्ट पशुरूप द्रव्य में भूति-साधनत्व प्रतिपादित है, अतः विशेषणीभूत श्वेतत्वादि गुणों में भी कोई अतिशय मानना पडता है, उसे ही गुणगत शक्ति कहते हैं । इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए । तार्किक-मत-तार्किकों का मत है कि, शक्ति तत्त्व कोई पृथक् पदार्थ नहीं, अग्न्यादि में कोई दाहक शक्ति नहीं, अपितु अग्न्यादि का दाहकत्व स्वभाव ही है । तार्किक-मत-निराकरण-वस्तु का स्वभाव यावद्वस्तुभावी होता है किन्तु अग्नि के रहने पर भी उसमें दाहकत्व नहीं रहता, यदि उसके साथ प्रतिबन्धक मणि-मन्त्रादि का सम्बन्ध हो जाता है, अत: अग्नि में दाहक शक्ति माननी आवश्यक है, जो कि प्रतिबन्धक मणि-मन्त्रादि के योग से नष्ट हो जाती है, अत: निर्विष सर्प के समान अग्नि शक्ति-हीन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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