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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् ) ६४७ / १२७० औपनिषद - मत का निराकरण - अद्वैत वेदान्तियों का उक्त मत अयुक्त हैं, क्योंकि किसी वस्तु का निषेध तभी हो सकता है, जब कि उसका ज्ञान हो । भेद का यदि अवगम नहीं हो सकता, तब उसका निराकरण भी कैसे होगा ? अतः स्तम्भ- कुम्भ, वादी-प्रतिवादी, पयः पावकादि के परस्पर भेद का निरास नहीं हो सकता, क्योंकि घट से अत्यन्त अनभिज्ञ व्यक्ति 'इह भूतले घटो नास्ति' - इस प्रकार घट का निषेध कभी नहीं कर सकते । अतः बाध्य होकर 'स्तम्भः कुम्भो न भवति' इत्यादि प्रत्यक्ष प्रमाण से भेद की अवगति माननी होगी, तब अनुमान और आगमादि प्रमाणों के द्वारा भेद का निराकरण नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण इतर सभी प्रमाणों से प्रबल होता है और अनुमान, आगमादि उससे दुर्बल। (श्री चिदानन्द पण्डित ने (नीति० पृ० १०२ - १०७ पर ) " किं स्तम्भकुम्भौ वादिप्रतिवादिनौ साध्यसाधने दूषणभूषणे चेत्यादीनां मिथो भेदः परमार्थरूपो विद्यते, न वा ?" इत्यादि विकल्प-प्रणाली अपनाकर अद्वैतवाद का विस्तार से निरास किया है) । यह जो भेद की प्रतीति में अन्योऽन्याश्रय दोष दिया है, वह भी संगत नहीं, क्योंकि भेदविषयक सविकल्पक ज्ञान में ही भेद और भेद्य का ज्ञान अपेक्षित होता है, निर्विकल्पक ज्ञान में नहीं, अतः निर्विकल्पक के द्वारा पहले भेदादि का स्वरूपतः भान हो जाने के पश्चात् सविकल्पक ज्ञान में भेद्य-भेद - सापेक्ष भेद की प्रतीति हो जाती है । निर्विकल्पक में भी 'प्रत्यक्षत्व' हेतु के द्वारा तादृश नियमपूर्वकत्व का अनुमान करने पर निर्विकल्पक में भी निर्विकल्पकपूर्वकत्व का अनुमान होने लगेगा, (चिदानन्द पण्डित भी कहते हैं-" कथं तर्हि भेद्यभेदावधिज्ञानजन्यस्य भेदज्ञानस्य समसमयत्वमिति चेत्, मैवम्, भेदविषयस्य निर्विकल्पस्य भेद्यभेदावधिज्ञानजन्यत्वनियमासिद्धेः । 'निर्विकल्पमपि तन्त्रियमयोगि, प्रत्यक्षत्वात्, सविकल्पकवदिति चेन्न, तस्य सविकल्पत्वप्रयुक्तत्वात्" (नीति० पृ० १०५) । अर्थात् उक्त अनुमान में 'सविकल्पप्रयुक्त्व' धर्म सविकल्पक ज्ञान में साध्य का व्यापक और निर्विकल्पकरूप पक्ष में साधन का अव्यापक होने से उपाधि है, अतः प्रत्यक्षत्व हेतु सोपाधिक होने के कारण साध्य का साधक नहीं हो सकता । यद्यपि इस उपाधि का पर्यवसान 'पक्ष - भिन्नत्व' में ही होता है, तथापि नारायण पण्डित द्वारा प्रदर्शित 'निर्विकल्पस्यापि निर्विकान्तरपूर्वकत्वं स्यात् ' - इस अनवस्थापादक तर्क से युक्त होने के कारण उक्त उपाधि हेतु को अक्षम बनाने में समर्थ है) । अतः निर्विकल्पक ज्ञान के द्वारा युगपत् अवभासित स्तम्भ, कुम्भ और भेदों का विशेषण - विशेष्यभाव सविकल्पक ज्ञान के द्वारा स्थापित किया जाता है और सप्रतियोगिकत्वेन भेद की प्रतीति उपपन्न हो जाती है, फलतः भेद की उपपत्ति के साथ-साथ पृथक्त्व की सिद्धि हो जाती है । (८) संयोग-संयोग भी सर्वद्रव्यवर्त्ती सामान्य गुण माना जाता है । वह दो प्रकार का होता है - (१) नित्य संयोग और (२) अनित्य संयोग । नित्यभूत आकाश, कालादि का परस्पर संयोग नित्य होता है, जो कि मन की विभुता के प्रसङ्ग में ही कहा जा चुका है । अनित्य संयोग (१) अन्यतर- कर्म-जन्य, (२) उभय-कर्म-जन्य और (३) संयोग-जन्य - इन भेदों से तीन प्रकार का होता है । (१) स्थाणु और श्येन पक्षी का संयोग अन्यतर-कर्म-जन्य होता है, क्योकि स्थाणु और श्येन-इन दोनों में से केवल एक श्येन पक्षी की क्रिया से ही वह संयोग उत्पन्न होता है । (२) जहाँ कहीं पहलवान के साथ कृष्ण का मल्ल-युद्ध होता है, वहाँ दोनों का संयोग उभय के कर्म से जन्य माना जाता है । हाथ और वृक्ष के संयोग के उत्पन्न शरीर और वृक्ष का संयोग संयोगज संयोग कहलाता है । (९) विभाग- विभाग केवल अविभु द्रव्यों में रहता है, अतः विशेष गुण है, वह भी (१) अन्यतर-कर्म-जन्य, (२) उभय कर्म-जन्य और (३) विभागज विभाग भेद से तीन प्रकार का होता है । (१०, ११) परत्वापरत्व - परत्व और अपरत्व भी केवल दिक् और काल में रहने के कारण विशेष कहे जाते है । दूरस्थ वस्तु में प्रतीयमान परत्व और समीपस्थ पदार्थ में ज्ञायमान अपरत्व दिक्कृत (दैशिक) कहे जाते हैं, क्योंकि वे दोनों दिक्प्रयुक्त होते हैं । स्थविर (वृद्ध) शरीर में परत्व (ज्येष्ठत्व) और युवा शरीर में अपरत्व कालिक माना जाता है, क्योंकि यह परत्व और अपरत्व काल की देन हैं । (१२) गुरुत्व - पतन क्रिया का असमवायिकारणभूत 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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