________________
६४६ / १२६९
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् ) (२) रस-रस केवल रसना इन्द्रिय का विषय है, पृथिवी और जल- दो में रहता है और विशेष गुण है । वह (१) मधुर, (२) तिक्त, (३) आम्ल, (४) कषाय, (५) कटु और (६) लवण भेद से छः प्रकार का होता है इनके भी अवान्तर भेद अनेक होते हैं । (३) गन्ध - गन्ध केवल घ्राण इन्द्रिय से गृहीत होती है, पृथिवी मात्र में रहती है, विशेष गुण है । इसके तीन भेद होते हैं- (१) सुगन्ध, (२) दुर्गन्ध, (३) साधारण गन्ध । जलादि में गन्ध अपनी नहीं होती, अपितु पृथिवी के सम्बन्ध से आती है । (४) स्पर्श - स्पर्श त्वगिन्द्रियमात्र से ग्राह्य पृथिवी, जल, तेज और वायु-इन चार द्रव्यों में रहता है, विशेष गुण है । शीत, उष्ण और अनुष्णाशीत भेद से तीन प्रकार का स्पर्श होता है । (५) संख्या - एकत्वादि व्यवहार के हेतुभूत गुण को संख्या कहते हैं, सर्व द्रव्यों में रहने के कारण सामान्य गुण है, वह एक से लेकर परार्ध - पर्यन्त संज्ञाए धारण करती है- एकं दश शतञ्चैव सहस्रमयुतं तथा । लक्षं च नियुतं चैव कोटिरर्बुदमेव च ।। पुनः खब निखर्वश्च शंखः पद्मश्च सागरः । अन्त्यं मध्यं परार्धं च दशवृद्ध्या यथाक्रमात् ।। पूर्व-पूर्व संख्या को दस से गुणन करने पर उत्तरोत्तर संख्या का लाभ होता है ।
(६) परिमाण - परिमाण भी मान व्यवहार का असाधारण कारण सर्व द्रव्यवृत्ति, सामान्य गुण है । अणु, महत्, ह्रस्व और दीर्धादि भेदों में विभक्त होता है । इनमें से अणुत्व परिमाण परमाणु में और महत् परिमाण गगनादि में तथा ह्रस्वत्वादि इतर द्रव्यों में रहते हैं । (७) पृथक्त्व - पृथक्त्व गुण भेद-व्यवहार का कारण सर्व द्रव्यगत सामान्य गुण है । प्राभाकरगण जो कहते हैं कि, कार्य द्रव्यों में पृथक्त्व नहीं रहता, जैसा कि अर्थदीपिका में कहा है- पृथक्त्वं तु गुणो नित्यद्रव्येषु परमाणुषु । भवेद् व्यावर्तको धर्मः कार्यद्रव्येषु नेष्यते ।। वह कहना उचित नहीं, क्योंकि नित्य द्रव्यों समान ही कार्यभूत घटादि द्रव्यों में भी प्रतीयमान भेद के साधक पृथक्त्व गुण का होना आवश्यक है ।
शङ्का-प्रभाकर गुरु का जो यह कहना है कि, भेद वस्तु का स्वरूप ही होता है, कार्य द्रव्यों का स्वरूप प्रत्यक्षगम्य ही है, अतः कार्य द्रव्यों में स्वरूपात्मक भेद से अतिरिक्त पृथक्त्व गुण मानने की आवश्यकता ही नहीं । हाँ, जिन द्रव्यों का स्वलक्षण (स्वरूप) प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं, वहाँ पृथक्त्वरूप व्यावर्तक गुण का अनुमान करना न्याय संगत है। आत्मा प्रत्यक्ष होने पर भी विभु है, अतः उसका भेद तब तक सिद्ध नहीं हो सकता, जब तक उसमें पृथक्त्व गुणरूप व्यावर्तक धर्म न माना जाय, अतः नित्य द्रव्यों में ही पृथक्त्व रहता है ।
समाधान - प्रभाकर गुरु का स्वरूपभेद-पक्ष युक्त नहीं, क्योंकि यदि पदार्थों के स्वरूप को ही भेद माना जाता है, तब ‘घटस्य भेद:'-यहाँ भेद में घट - सम्बन्धित्व और 'घटात् पटो भिन्नः ' - यहाँ पर भेद में पट विशेषणत्व की प्रती निराधार हो जायेगी तथा 'घट' पद और 'भेद' पद में पर्याय वाचित्व भी मानना पडेगा । (श्री चिदानन्द पण्डितने भी कहा है- " स्वरूपभेदयोरैक्ये नीलं भिन्नं नीलस्य भेद इति वा विशेषणत्वेन सम्बन्धित्वेन च भेदस्यावभासो नीलभेदपदयोरपर्यायत्वावभासश्च विरुध्येयाताम् " ( नीति० पृ० १०० ) । अतः सभी द्रव्यों में पृथक्त्व गुण मानना चाहिए ।
औपनिषद - मत-अद्वैत वेदान्तियों का मत है कि, विश्व में कहीं भी भेद की सिद्धि नहीं होती, अतः भेद के प्रयोजकीभूत पृथक्त्व गुण को कहीं भी मानने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि 'स्तम्भात् कुम्भो भिन्नः' यहाँ पर कुम्भ में स्तम्भ का भेद तभी अवगत होगा, जब कि स्तम्भ में कुम्भ का भेद ज्ञात हो जाय । इस प्रकार अन्योऽन्याश्रयादि दोषों के कारण भेद-प्रतीति का सम्पादन सम्भव नहीं । भेद-प्रतीति का आश्रय लेकर ही अनुमानादि प्रवृत्त होते हैं, उसके सिद्ध न होने पर अनुमानादि भी भेद के साधक नहीं हो सकते । "नेह नानाऽस्ति किञ्चन" (बृह० उ० ४/४/१९) इत्यादि श्रुतियाँ भी भेद का निराकरण करती हैं, अतः इनसे विरुद्ध प्रत्यक्षादि प्रमाण न तो भेद सिद्ध कर सकते हैं और न पृथक्त्व गुण ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org