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________________ ६४२/१२६५ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) वर्णात्मक शब्द वाचक होते हैं । वर्णात्मक शब्दों का वह समुदाय भाट्ट मत में पद कहलाता है, जिसमें सभी शब्द मिल कर एक अर्थ का अभिधान करते हैं । वर्णात्मक शब्द से भी भिन्न पदध्वनि के द्वारा अभिव्यञ्जनीय स्फोटात्मक शब्द पातञ्जल मत में पद कहा जाता है । वहाँ जिज्ञासा होती है कि, वर्णातिरिक्त शब्द तत्त्व में क्या प्रमाण है? शङ्का-'एकं पदम्'-इस प्रकार का प्रत्यक्ष अनुभव लोक-प्रसिद्ध है, यह वर्णविषयक नहीं हो सकता, क्योंकि वर्ण अनेक होते हैं, उनमें एकत्व नहीं घटता, अत: वर्णों से अतिरिक्त पदरूप में स्फुटित होनेवाला पदस्फोट मानना आवश्यक है। समाधान-जैसे अनेक पदों से आरब्ध वाक्य एक वाक्यार्थ का बोधक होने के कारण एकत्वविषयिणी बुद्धि का विषय होता है, वैसे ही अनेक वर्ण मिलकर जब एकार्थपर्यवसायी होते हैं, तब उन्हें ही ‘एकं पदम्' कह दिया जाता है। वाक्य में भी वाक्यस्फोट-निबन्धन एकत्वबुद्धि होती है-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि वाक्य में भी एकार्थप्रतिपादकत्वेन ही एकत्व-व्यवहार निभ जाता है, वाक्यस्फोट मानने की कोई आवश्यकता नहीं । जहाँ तक दृष्ट या क्लृप्त पदार्थों से निर्वाह हो जाय, वहाँ तक अदृष्ट पदार्थों का कल्पना नहीं की जाती । अतः पद और वाक्य में एकत्व का भान एकार्थबोधकत्वेन ही माना जाता है, वर्णों से अतिरिक्त किसी स्फोटादिरूप शब्द की कल्पना अनावश्यक है। यह जो कहा जाता है कि, वर्ण-समूह को पद मानने पर 'कमल' पद के समान ‘लमक' पद से भी उसी अर्थ का बोध होना चाहिए, क्योंकि क्रम-व्युत्क्रम का भेद होने पर वर्ण तो उतने ही दोनों पदों में हैं । वह कहना संगत नहीं, क्योंकि वों को स्फोट का अभिव्यञ्जक मानने पर भी वही शङ्का बनी रहती है कि, 'कमल' के समान 'लमक' पद से भी उसी स्फोट की अभिव्यक्ति क्यों नहीं होती ? अतः स्फोट नाम का कोई पदान्तर या द्रव्यान्तर मानने की आवश्यकता नहीं । वर्ण-समूहात्मक पद का अपने पदार्थ के साथ जो बोध्य-बोधकभावरूप सम्बन्ध होता है, वह भी नित्य ही है । तार्किकगण जो कहा करते हैं कि, पद और पदार्थ का परस्पर साङ्केतिक सम्बन्ध है, सङ्केतयित है । वह उनका कहना तार्किक-सम्मत ईश्वर का निराकरण हो जाने से ही निरस्त हो जाता है । गोत्वादि जाति ही गवादि पदों की अभिधेय होती है और 'गामानय'-इत्यादि वाक्यों में गोत्व के साथ आनयनादि क्रिया का अन्वय अनुपपन्न होने के कारण व्यक्ति में लक्षणा की जाती है । जाति की नित्यता का अग्रिम जाति-प्रकरण में ही वर्णन किया जायेगा और सम्बन्धी की अनित्यता के कारण सम्बन्ध की अनित्यता भी कही जायगी । शब्दों को अनित्य मानने पर शब्दात्मक वेदों की नित्यता वैसे ही उपहासास्पद हो जायगी, जैसे शशशृङ्ग का प्रहार। इस प्रकार इस द्रव्य-प्रकरण का विस्तार से वर्णन किया गया, अत: हमारे (भाट्ट) मत में ग्यारह प्रकार का द्रव्य स्थिर हो गया । जातिर्व्यक्तिगता नित्या प्रत्यक्षज्ञानगोचरा । भिन्नाभिन्ना च सा व्यक्तेः कुमारिलमते मता ।।३५।। नायाति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् । जहाति पूर्वं नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ।।३६।। (२) जाति-जाति अपनी व्यक्ति के आश्रित, नित्य एवं प्रत्यक्ष ज्ञान की विषय मानी जाती है, श्री कुमारिल भट्ट के मत में जाति व्यक्ति से भिन्नाभिन्न कही जाती है । बौद्ध-मत-बौद्धगण जाति पदार्थ को ही नहीं मानते और कहते हैं कि जाति सर्वगत होती है ? अथवा केवल व्यक्ति में ? यदि सर्वगत है, तब सर्वत्र उसकी उपलब्धि होनी चाहिए । व्यक्ति के आश्रित भी जाति को नहीं माना जा सकता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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