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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) यह जो कहा गया कि शरीर इन्द्रियों का आयतन होता है, किन्तु वृक्षादि के शरीर इन्द्रियों के आयतन नहीं । अतः उन्हें शरीर नहीं मानना चाहिए । वह कहना अत्यन्त असंगत है, क्योंकि कतिपय कटहलादि वृक्षों के मूल में आमिषादि का योग हो जाने से, वे सपष्ट और हरे-भरे हो जाते हैं और उसके अभाव में सख जाते हैं । इस प्रकार इतर शरीरों के समान ही वृद्धि-ह्रासादि देखकर वृक्षादि में सात्मत्व और दाह-छेदादि के द्वारा सुख-दुःखादि का होना सिद्ध हो जाता है । सुख-दुःखादि की अनुभूति इन्द्रियों के बिना नहीं हो सकती, अतः वहाँ इन्द्रियाँ भी सिद्ध होती हैं, अतः वृक्षादि शरीर निर्विवादरूप में इन्द्रियो के आयतन भी है ।
यह जो "अचेतनेऽर्थबन्धनात्" (जै०सू० १/२/३१) इस सूत्र में 'औषधे त्रायस्वैनम्'-इत्यादि मन्त्रो का उदाहरण प्रस्तुत कर शबरस्वामी ने उद्भिज्ज-वर्ग को अचेतन कह कर उनके शरीरवत्त्व की अघटितता ध्वनित की है -“न चासावचेतना शक्याः प्रतिपादयितुम" (शा० भा० पृ० १४८) । यहाँ वक्षादि शरीरावच्छिन्न चैतन्य के अपलाप में तात्पर्य नहीं, अपितु तमःप्रधान कलेवर में पूर्णतया चैतन्याभिव्यक्ति, सरभर नहीं होती, अतः एव उनमें अभिमुखीभाव का सामर्थ्य न होने के कारण उन्हें सम्बोधित करना सम्भव नहीं । वार्तिककार ने स्पष्ट कहा है कि "सम्बोधन कार्यनियोगाभिमुखीकरणार्थम् न चाचेतनस्यामिमुख्यं सम्भवति । न च पशुत्राणे प्रेषणप्रवृत्तिरुपपद्यते" (तं०वा०पृ० १४८) । वहाँ ओषधी (वृक्षादि) में चैतन्याधिष्ठितत्व का निषेध न तो किया जाता है और न प्रकरणोपयोगी है, केवल आभिमुख्याभाव का प्रदर्शन किया गया है । वृक्षादि के प्ररोहण-अभिवर्धनादि को देखकर चेतनाधिष्ठितत्व की कल्पना स्वाभाविक है । (तार्किकों के द्वारा प्रतिपादित शरीर का चेष्टावत्त्व और इन्द्रियवत्त्व लक्षण वृक्षादि में स्फुट न होने के कारण ही अशरीरत्व का व्यवहार किया गया है, जैसा कि श्री शङ्करमिश्र कहते हैं-"यद्यपि वृक्षादयोऽपि शरीरभेदा एव, भोगाधिष्ठानत्वात् । वृद्धिक्षतभग्नसरोहणे च भोगोपपादके स्फुटे एव, आगमोऽप्यस्ति-"नर्मदातीरसम्भूताः सरलार्जुनपादपाः । नर्मदातोयसंस्पर्शात् ते यान्ति परां गतिम् ।।" "श्मसाने जायते वृक्षः कङ्कगृध्रादिसेवितः"इत्यादिश्च । तथापि चेष्टावत्त्वमिन्द्रियवत्त्वञ्च नोद्भिदां स्फुटतरमतो न शरीरव्यवहारः" (उपस्कार० पृ० १२६)।
अथवा श्री वाचस्पति आदि के अनुसार वृक्षादि में अचेतनता मान लेने पर भी हमारी कोई क्षति नहीं, श्री प्रभाकर का जो कहना है कि, 'स्मृतिपुराणादि के वचन कार्यार्थक न होने के कारण प्रमाण नहीं'-इसका निराकरण ही हमारा विशेष उद्देश्य है, फलत: तीन या चार प्रकार का शरीर सिद्ध हो गया ।।
(२) जल-स्वाभाविक द्रवत्व (तरलता) के आधार को जल कहा जाता है । वह सर (तालाब), सरित् (नदी), सागर और करक (ओला) इत्यादि भेद से अनेक विध है, वह रसना इन्द्रियरूप भी है ।
(३) तेज-उष्णस्पर्शवाले द्रव्य को तेज कहा जाता है, वह सूर्य, चन्द्र, अग्नि, नक्षत्र और सुवर्णादि स्वरूप एवं चक्षुरिन्द्रियरूप है । तेज के रूप और स्पर्श-दोनों गुणों में प्रत्येक त्रिविध होता है-(१) उद्भूत, (२) अनुद्भूत और (३) अभिभूत । उद्भूतरूप और उद्भूत स्पर्शवाला तेज पूर्णतया तपे हुए लोहपिण्डादि में पाया जाता है । अनुद्भूत रूप ओर अनुदूभूत स्पर्शवाला तेज नेत्रेन्द्रिय है । अभिभूतरूप और अभिभूत स्पर्शवाला तेज सुवर्ण है । सुवर्ण में तैजस रूप और स्पर्श का अभिभव सबल पार्थिव रूप और स्पर्श के द्वारा हो जाता है । रूप और स्पर्श में से एक-एक का अनुद्भव होने पर तेज के दो प्रकार हो जाते हैं । उद्भूत रूप एवं अनुद्भूत स्पर्शवाला तेज है-प्रदीपप्रभामण्डल । अनुद्भूतरूप और उद्भूत स्पर्शवाला तेज गरम जल में रहता है । इसी प्रकार अभिभव होने पर भी तीन भेद हो जाते हैं--सुवर्ण में रूप और स्पर्श-दोनों का अभिभव होता है, उपलभ्यमान स्पर्श तो सुवर्णगत पार्थिव अंश का ही होता
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