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________________ ६०६ / १२२९ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६ अर्थ तुरन्त नहीं समझ पाता, जब बाजार में जाता है और उस वणिक् (विक्रेता बनिया) के पास नौ कम्बल देखता है, तब उस वाक्य का अर्थ समझ पाता है कि उक्त वाक्य का तात्पर्य नूतन कम्बलों के बोध में नहीं, अपितु नवसंख्यक कम्बलों तात्पर्य है, वैसे ही प्रकृत में भी प्रत्यक्ष - दृष्ट गवय में ही संगति-ग्रहण उक्त वाक्य से होता है । वह कार्य जब शब्द प्रमाण से ही चल जाता है, तब उसके लिए उपमानसंज्ञक एक नये प्रमाण की क्या आवश्यकता ? दूसरी बात यह भी है कि, लोक व्यवहार में उपमान शब्द का सादृश्य अर्थ ही प्रसिद्ध है, आपने जो वैधर्म्य और धर्ममात्र में भी उपमान का प्रयोग किया है, वह कैसे होगा ? । उसी प्रकार 'अतिदेश' शब्द भी साधर्म्य-बोधक वाक्य के लिए प्रयुक्त होता है, अतः वह भी वैधर्म्यादि के बोधक वाक्य का उपस्थापक क्योंकर होगा ? फलतः असन्निकृष्ट गो सादृश्य के बोध को ही हम उपमान कहते हैं, जो कि प्रत्यक्षादि इतर प्रमाणों से प्राप्त नहीं हो सकता । उपमान प्रमाण की स्थापना के द्वारा हमने केवल प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द- इन तीन प्रमाणों के माननेवाले सांख्यादि को भी जीत कर उन्हें इस चौथे प्रमाण (उपमान) को मानने के लिए बाध्य कर दिया । 'सादृश्य' पदार्थ के विषय में हमारा आचार्य प्रभाकर से पुराना विवाद चला आ रहा है, क्योंकि प्रभाकर गुरु 'सादृश्य' पदार्थ को एक पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं, किन्तु हमारा कहना है कि एक वस्तु के उस गुणादिक सामान्य-योग को सादृश्य कहते हैं, जो दूसरी वस्तु में भी रहता है । इसकी विशेष चर्चा प्रमेय-परिच्छेद में की जायगी । श्री चिदानन्द पण्डित ने भी गुरु-मत का निराकरण करते हुए कहा है- " अत्र केचिद् द्रव्यादिवैधर्म्यात् सादृश्यं तत्त्वान्तरमाहुः, तदयुक्तम्, गुणावयवसामान्यानामेवैकत्र प्रतीतानामन्यत्र सादृश्यबुद्धिविषयत्वात्" (नीति. पृ. १५०) । अन्यथानुपपत्त्या यदुपपादककल्पनम् । तदर्थापत्तिरित्येवं लक्षणं भाष्यभाषितम् ।। १२८ ।। साधारणप्रमाणानामसाधारणमानतः । विरोधादविरुद्धांशे धीरर्थापत्तिरिष्यते । । १२९ ।। यथा जीवनमानस्य गृहाभावप्रमाणतः । विरोधात्कारणीभूताद्बहिर्भावस्य कल्पनम् ।। १३० ।। अमुष्यास्त्वनुमानत्वमिच्छन्तस्तार्किका जगुः । न मानयोर्विरोधोऽस्ति प्रसिद्धे चाप्यसौ समः । । १३१ ।। ईदृशस्य विरोधस्य प्रसिद्धानुमितिष्वपि । संभवादनुमाजालमर्थापत्तिर्ग्रसिष्यते ।। १३२ ।। तदिदं शिक्ष्यतेऽस्माभिर्विरोधोऽस्त्येव मानयोः । न प्रसिद्धानुमाभङ्गो बहिर्भावे च नानुमा ।। १३३ ।। साधारणप्रमाणस्य त्वसाधारणमानतः । बाधेऽपि सावकाशत्वादप्रामाण्यं न जायते । । १३४ ।। ज्ञायमानेऽनुमानेन देवदत्तस्य जीवने । ज्ञातव्यो देशसंबन्धोऽप्यस्यावस्थितिहेतवे ।। १३५ ।। तत्र देशत्वसामान्यमात्रं संबध्यते यदि । तर्हि देशत्वसंबन्धाद् देशः स्यात्पुरुषोऽप्यसौ । । १३६ ।। ततश्चानियतव्यक्तिदेशसामान्यसंश्रितम् । ज्ञायते जीवनं तस्य क्वचिज्जीवत्यसाविति । । १३७ ।। तस्माद् गृहे बहिर्वेति संदिग्धमपि कंचन । विशेषमवलम्ब्यैव प्रमितं खलु जीवनम् ।।१३८ ।। तत्रैकस्य विशेषस्य बाधेऽन्यग्रहणात् पुरा । बाध्येतैव निरालंबा जीवनप्रमितिः पुरा ।। १३९ ।। एवं बहिष्ट्वसिद्धेः प्राग्गृहाभावग्रहागताम् । प्रतिरोधदशां सूक्ष्मामजानन्तो वदन्ति ते ।। १४० ।। अदृष्टपर्वतः पूर्वं कथं तस्याग्निशालिताम् । अवगच्छेदिति ध्वस्तमनुमानेऽपि तन्मतम् ।।१४१ ।। तस्योर्ध्वानुपलम्भेन बाधे चाध: प्रकल्पनम् । अर्थापत्तितयैवेष्टमिति कष्टं न किंचन ।।१४२ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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