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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
६०५/१२२८
समाधान-पुरुषगत वैधर्म्य का स्वरूप है-गवयगत धर्म का अभाव, अतः अनुपलब्धि प्रमाण के द्वारा ही वैधर्म्य का ज्ञान हो जाता है, उसके लिए प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं ।
नैयायिक मत-नैयायिक की उपमान के विषय में अन्य ही धारणा है कि, नगर में गये वनचर से कोई पूछता है'गवयो नाम कः ?' उसका उत्तर वनवासी देता है-'गोसदृशो गवयः ।' उसे सुनकर श्रोता वन में जाता है, वहाँ गोसदृश पिण्ड को देखकर उसे यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि 'अयमेव स गोसदृशः ।' उसके अनन्तर 'अयमेव गवयपदवाच्यः' - इस प्रकार का जो संज्ञा (गवय पद) और संज्ञी (गवय पिण्ड) के सम्बन्ध का ज्ञान होता है, वह संगति-ग्रहण उपमिति है और उसका कारणभूत वाक्यार्थ-प्रत्यभिज्ञान उपमान कहलाता है । यह संगति-ग्रहण अन्य किसी प्रमाण से नहीं हो सकता, क्योंकि पहले वाक्य-श्रवण के समय गवयरूप संज्ञी का दर्शन न होने के कारण उसके साथ किसी भी शब्द का सम्बन्ध गृहीत नहीं हो सकता और गवय पिण्ड का दर्शन हो जाने पर वनचरोच्चारित वाक्य नष्ट हो चुका होता है, अतः वह गवय का बोध नहीं करा सकता ।
शङ्का-गोसदृश पिण्ड के लिए 'गवय' शब्द का प्रयोग होता है-इतना तो वनचर के वाक्य से अवगत हो ही जाता है, गवय का दर्शन होने पर उसी का अनुमान किया जा सकता है-'गवयशब्दोऽस्य वाचकः, (असति वृत्त्यन्तरे) लक्षणादीन् विनाऽत्र प्रयुज्यमानत्वाद्, यथा गवि गोशब्दः ।'
समाधान-तत्र प्रयुज्यमानत्वमात्र ही वाक्य से अवगत हुआ था, लक्षणादि का अभाव तब तक नहीं जाना जा सकता, जब तक कि उक्त शब्द में वाचकत्व की सिद्धि नहीं हो जाती, अतः उक्त हेतु 'विशेषणासिद्ध' नाम का हेत्वाभास है, उससे सम्बन्ध-ज्ञान सम्भव नहीं, परिशेषतः उपमान-साध्य ही संज्ञा-संज्ञि-सम्बन्ध-ग्रहण स्थिर होता है ।
साधार्थक वाक्यार्थ से जैसे उपमान होता है, उसी प्रकार वैधार्थक वाक्यार्थ से भी संज्ञासंज्ञि-सम्बन्ध-ग्रहण होता है, जैसे कि 'गवादिवद् द्विशफः तुरङ्गो न भवति'-इस वैधार्थक वाक्य को सुनकर कोई व्यक्ति वन में जाता है, वहाँ अश्व को देखकर उसे प्रत्यभिज्ञा होती है कि 'अयमेव द्विशफवैधर्म्यभूतैकशफत्ववान्, तस्मादयमश्वः' । साधोपमान और वैधोपमान के समान ही तीसरा एक धर्ममात्रोपमान भी है कि, उत्तर भारतवासी के द्वारा कथित 'दीर्घग्रीवः प्रलम्बोष्ठः कठोरतीक्ष्णकण्टकाशी पशः क्रमेलकः'-ऐसा वाक्य सुनकर कोई दाक्षिणात्य उत्तरापथ में आता है, यहाँ ऊँट को देखते ही उसे यह प्रत्यभिज्ञा हो जाती है कि 'असौ तादृशः पशुः, तस्मादयं क्रमेलकः' ।।११५-१६।। श्री वरदराजने उपमान के ये तीनों भेद (ता. र. पृ. ८७ पर) दिखाए हैं
अत्रातिदेशवाक्यार्थः त्रिविधः परिगृह्यते । साधर्म्य धर्ममात्रं च वैधयं चेति भेदतः ।।
नैयायिक मत का निरास-उक्त नैयायिक मत समीचीन नहीं, क्योंकि श्री उदयनाचार्य ने जो संज्ञा-संज्ञि सम्बन्धबोध उपमान का फल कहा है-"सम्बन्धस्य परिच्छेदः संज्ञायाः संज्ञिना सह । प्रत्यक्षादेरसाध्यत्वादुपमानफलं विदुः।।" (न्या.कु. ३/१०) । वह संगत नहीं, क्योंकि वह प्रत्यक्षानुगृहीत शब्द प्रमाण से ही उत्पन्न हो जाता है, उसके लिए प्रमाणान्तर की क्या आवश्यकता? । को गवयः ? यह प्रश्न भी वाच्यार्थविषयक है और उसके (गोसदृशो गवयः) उत्तर वाक्य का भी तात्पर्य वाच्यार्थ-प्रदर्शन में ही निश्चित है । अतः जब तक गवयपद-वाच्यार्थ का दर्शन नहीं होता, तब तक उक्त (गोसदृशो गवयः) शब्द अपर्यवसित ही रहता है, क्योंकि गवयज्ञान से पहले उसका प्रदर्शन नहीं हो सकता । 'गोसदृशो गवयः'-यह वाक्य गवयदर्शन से पहले गवय का ज्ञान कराने में असमर्थ था और गवय-दर्शन के पश्चात् वही वाक्य गवय-दर्शी के स्मृति-पटल पर उभर कर प्रत्यक्षोपलब्ध गवय में अपना तात्पर्य प्रकट करता हुआ संज्ञा-संज्ञिसम्बन्ध का वैसे ही बोधक हो जाता है, जैसे 'नवकम्बलो वणिक्'-इस प्रकार का वाक्य सुनकर श्रोता उक्त वाक्य का
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