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(३) दृष्टान्ताभास :
दृष्टान्त का स्वरूप चिदानन्द पण्डित ने (नीति० पृ० १४२-४३ पर) इस प्रकार दिखाया है - साध्य और साधन की व्याप्ति के निश्चयस्थल को उदाहरण, दृष्टान्त या निदर्शन कहा करते हैं । वह साधर्म्य और वैधर्म्य भेद से दो प्रकार का होता है । साधन का साध्य के साथ अन्वय-प्रदर्शन साधर्म्य कहा गया है, जैसे कि 'यो धूमवान्, सोऽग्निमान्, यथा - महानसः ।' साध्याभाव का साधनाभाव के साथ अन्यव - प्रदर्शन वैधर्म्य है, जैसे- 'योऽग्निमान्न भवति, नासौ धूमवान्, यथा जलम् ।'
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६
दृष्टान्ताभास का भी निरूपण चिदानन्द पण्डित के अनुसार ही इस प्रकार है कि, साधर्म्यदाहरणाभास चार प्रकार का है- (१) साध्यहीन, (२) साधनहीन, (३) उभयहीन और (४) आश्रय-हीन । जैसे 'ध्वनिः ' नित्य:, अकारणत्वाद्, यदकारणम्, तन्नित्यम्' - यहाँ पर (१) 'प्रागभाववत्' - यह साध्यहीन, (२) 'ध्वंसवत्' - यह साधनहीन, (३) 'घटवत्'-यह उभय-हीन तथा (४) 'नरशृङ्गवत्' - यह आश्रय-हीन है । नित्यत्व यहाँ अविनाशित्व ही विवक्षित है, कोटिद्वयराहित्य नहीं ।
वैधर्म्यदाहरणाभास भी (१) 'साध्याव्यावृत्त', (२) 'साधनाव्यावृत्त', (३) 'उभयाव्यावृत्त' और (४) 'आश्रय-हीन' भेद से चार प्रकार का होता है, जैसे 'यन्त्रित्यं न भवति, न तदकारणम्' - यहाँ पर (१) 'ध्वंसवत्' - यह साध्याव्यावृत्त, (२) ‘प्रागभाववत्' - यह 'साधनाव्यावृत्त' (३) 'गगनवत्' - यह उभयाव्यावृत्त और (४) 'नरशृङ्गवत्'- यह आश्रयहीन है ।
कथित उभयविध उदाहरणों में अव्याप्त्यभिधान और विपरीतव्याप्त्यभिधान- ये दो दोष होते हैं । 'अग्निमान् पर्वतः धूमवत्त्वाद्, यथा महानसः' इतना ही कहने पर अव्याप्त्यभिधान है, क्योंकि 'यो 'धूमवान्, सोऽग्निमान्'- इस प्रकार व्याप्ति का अभिधान नहीं किया गया । उसी प्रकार 'योऽग्निमान्न भवति, नासौ धूमवान्' - इस प्रकार व्याप्ति का अभिधान न कर 'यथा महाह्रदः' इतना ही कहने पर अव्याप्त्यभिधान व्याप्त्यनभिधान है ।
जब कि, 'यो धूमवान् सोऽग्मिान्' - इसके स्थान पर 'योऽग्निमान् स धूमवान्' - ऐसा कहा जाता है, तब विपरीतव्याप्त्यभिधान है । उसी प्रकार ‘योऽग्निमान्न, नासौ धूमवान्' - इसके स्थान पर 'यो धूमवान्न भवति, नासावग्निमान्' - ऐसा प्रयोग करने पर भी विपरीतव्याप्त्यभिधान होता है । यह अनुमान का प्रपञ्च अनेक विद्वानों ने विविध प्रकार से कहा है, किन्तु हम ( नारायणभट्ट) ने श्री चिदानन्द पण्डित के द्वारा नीतितत्त्वाविर्भाव में कथित रीति से निरूपित किया है । अनुमानतः परस्तादुपमानं वर्णयन्ति तर्कविदः । वादिपरिग्रहभूम्ना वयं तु शाब्दं पुरस्कुर्मः ।।८९।। तत्र तावत्पदैर्ज्ञातैः पदार्थस्मरणे कृते । असन्निकृष्टवाक्यार्थज्ञानं शाब्दमितीर्यते । । ९० ।। तेनात्र पदावगताः पुनः पदार्था मिथोऽन्वयं यान्ति । इत्येवमभिहितान्वयसिद्धान्तो दर्शितोऽस्मदादीनाम् ।। ११ । । (३) शब्द : अनुमान के अनन्तर उपमान का वर्णन तार्किक किया करते हैं किन्तु अधिक दार्शनिकों के द्वारा अपनाए गए क्रम के अनुसार हम (नारायण भट्ट) शब्द का पहले निरूपण करते हैं। ज्ञात पदों के द्वारा पदार्थों का स्मरण हो जाने पर जो असन्निकृष्टार्थ विषयक वाक्यार्थज्ञान होता है, उसे शाब्द प्रमाण कहते हैं । ( भाष्यकारने कहा है- " शास्त्रं शब्दविज्ञानादसन्निकृष्टेऽर्थे विज्ञानम्" ( शा० भा०पृ० ३७ ) । चिदानन्द पण्डित ने वार्तिक के अनुसार उसी का आशय शाब्द सामान्य के लक्षण में बताया है - "विज्ञातेभ्यः पदेभ्यः पदार्थस्मृतिमुखेनासन्निकृष्टेऽर्थे यत् ज्ञानम्, तच्छाब्दम्” (नीति० पृ० १४४) । पदों के द्वारा पदार्थों का स्मरण और स्मारित पदार्थों के द्वारा जो वाक्यार्थ-ज्ञान होता है, उसे ही शाब्द
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