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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ५९७ / १२२० यह जो आप (तार्किकों) ने बाधितविषयक हेत्वाभास कालात्ययापदिष्ट नाम से प्रतिपादित किया है- “प्रमाणबाधितविषयः कालातीतः । तत्र प्रत्यक्षबाधितो यथा - अनुष्णोऽग्निः, द्रव्यत्वात्" ( ता० र० पृ० २२८-२९) । उसको हमारे चिदानन्द पण्डित ने बाधितविशेषणक नाम का पक्षाभास कहा है- "कालात्ययापदिष्टस्य बाधितविशेषणपर्यायत्वेन पक्षदूषणत्वात्” (नीति० पृ० १४२) । शङ्का-हम (तार्किकगण) पक्षाभासादि को पृथक् दोष नहीं मानते, अपि तु पक्ष- दोष और दृष्टान्त-दोषों का अन्तर्भाव हेत्वाभासों में ही कर देते हैं । जैसे कि 'सिद्धविशेषणक' नाम का पक्षाभास 'आश्रयासिद्ध' नाम का हेत्वाभास है, क्योंकि पक्ष ही हेतु का आश्रय होता है और जहाँ पर साध्य का निश्चय हो उसे पक्ष नहीं माना जाता, सन्दिग्धसाध्यवान् ही पक्ष होता है । उसी प्रकार 'अप्रसिद्ध विशेषणक' नाम का पक्षाभास भी आश्रयासिद्ध ही है, क्योंकि जैसे 'काञ्चनमयपर्वतः' में विशेषणरूप पक्षतावच्छेदक धर्म का अभाव होने के कारण पक्षता नहीं मानी जाती । केवल पक्ष दोष ही हेत्वाभास के अन्तर्भुक्त नहीं होते, वक्ष्यमाण दृष्टान्त - दोष भी हत्वाभासों में खप जाते हैं, अतः हेतुदोषों से भिन्न और कोई दोष ही नहीं । इस प्रकार हेत्वाभासों के उदर में ही सभी दोषों के प्रविष्ट हो जाने पर 'बाधितविशेषणक' नाम का पक्षदोष भी निःसहाय होकर कब तक बाहर खड़ा रह सकेगा ? अतः उसे भी हेत्वाभासता की परिधि में ले लेना चाहिए । समाधान- आभासों का सांकर्य उपस्थित होने पर प्रथमतः स्फुरित दोषों का ही पहले उद्भावन करना चाहिए - ऐसी सभी वादिगणों की मर्यादा है । हेतु का प्रयोग होने से पहले पक्ष-वचन का उच्चारण किया जाता है, अतः यदि पक्ष-वचन में कोई दोष प्रतीत होता है, तब उसकी उपेक्षा क्यों ? क्या आपने यह न्याय नहीं सुना है कि " प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः किं निबन्धनः " ( श्लो० वा० पृ० ६९) । सिद्धविशेषणक पक्ष में दुष्टत्व देखकर ही आपने आश्रयासिद्धि नाम का हेतु-दोष कहा है, ऐसा हेतु-दोषत्व क्या पक्ष-दोषत्व से भी पूर्वभावी है ? इसी प्रकार साध्य का अप्रसिद्धित्व और साध्य का बाध पक्ष-वचन के होने पर ही अवगत होते हैं, अतः उन्हें पक्ष-दोष ही मानना चाहिए । इस प्रकार वक्ष्यमाण दृष्टान्त-दोषों का भी पृथक् भाव समर्थित हो जाता है । यह सार्वभौम न्याय है कि, जो दोष जिसमें स्फुरित होता है, वह उसी का दोष माना जाता है । यदि अक्षपाद महर्षि ने पक्षादि के दोष नहीं कहे हैं, तब उनकी भक्ति के आवेश में आकर इस न्याय की तो उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । फलतः बाधित विशेषणकत्व पक्षाभास ही है, इसे पृथक् पाँचवाँ हेत्वाभास नहीं माना जा सकता । जो लोग अनुकूल तर्क के अभाव में हेतु को अप्रयोजक नाम का पृथक् हेत्वाभास मानते हैं, वे भी व्याप्त्यसिद्ध को अप्रयोजक कह देते हैं । सभी अनुमानों में अनुकूल तक के द्वारा व्यभिचार - शङ्का का निरास कर निरुपाधिकता की स्थापना करनी होती है, अतः अनुकूल तर्क के न होने पर व्याप्तिरूप निरुपाधिक सम्बन्ध का निश्चय न हो सकने के कारण व्याप्त्यसिद्धि होती है । ऐसे व्याप्यसिद्ध हेतु को ‘उपाधिमान्’, ‘अन्यथासिद्ध', 'अप्रयोजक', 'परप्रयुक्तव्याप्त्युपजीवी', 'सन्दिग्धव्याप्तिक' आदि नामों से अभिहित किया करते हैं, किसी पृथक् हेत्वाभास को नहीं । यह जो श्री भासर्वज्ञ ने (न्या० भू० पृ० ३०९ पर) कहा है- 'साध्यासाधकः पक्ष एव वर्तमानोऽनध्यवसितः, यथा- नित्या भूः, गन्धवत्त्वात् । सर्वं क्षणिकम्, सत्त्वात् - इत्यादि । उनमें प्रथम उदाहरण असाधारण का ही है और 'सर्व क्षणिकम्, सत्त्वात्'-यहाँ पर सभी पदार्थों को पक्ष बना लिया गया है अतः उससे भिन्न न तो कोई सपक्ष है ओर न विपक्ष, अतः अन्वय व्याप्ति और व्यतिरेक व्याप्ति का निश्चय न हो सकने के कारण व्याप्त्यसिद्धि ही है, अन्य हेत्वाभास नहीं । अतः हमने ऊपर जो हेत्वाभास की व्यवस्था की है, वही निर्दुष्ट है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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