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________________ ३४/६५७ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन धीरे धीरे शुद्ध होते होते निर्मल बन जाता है, वैसे आत्मा के द्वारा भी निरंतर ज्ञानादि का अभ्यास करने से आत्माके उपर लगे हुए, कर्ममल का क्षय होने से आत्मा सर्वज्ञ कैसे बन ना सके? तो आप जगत में कोई सर्वज्ञ नहि है, ऐसा क्यों कहते है ? उत्तर : आपकी यह बात उचित नहि है। क्योंकि अभ्यास से शुद्धि की तरतमता ही होगी। परंतु परमप्रकर्ष नहि होगा अर्थात् अभ्यास से आत्मा के उपर से कर्ममल नाश होने से आत्मा शुद्ध बनेगा। (पहले अशुद्ध था, उसमें से थोडा शुद्ध बनता है। अभ्यास बढने से थोडा ज्यादा शुद्ध बनता है। परन्तु) सर्वज्ञता को प्रकट करनेवाली परमशुद्धि का प्रकर्ष नहि होता है। कोई आदमी ऊंची कूद लगाने का अभ्यास करे तो वह प्रथम पांच-छ फूट कूद सकेगा, अभ्यास से आठदस फूट कूद सकेगा, वैसे अभ्यास से ज्यादा ऊंचे तक कूद सकेगा। परंतु बहोत बहोत अभ्यासु से भी वह लोक का उल्लंघन नहि कर सकता । इसलिए कहा है कि "जो व्यक्ति अभ्यास से आकाश में उछलकर दस हाथ उपर जाता है । वह सेंकडो अभ्यास से भी सौ योजन ऊंचे जाने के लिए समर्थ नहीं होता है।" वैसे ही यह बताये कि, आपका सर्वज्ञ जगत की सर्ववस्तुओ के समूह को किस प्रमाण से जानता है ? क्या प्रत्यक्ष प्रमाण से जानते है ? या यथासंभव सभी प्रमाण इकट्ठे होने से जगत्वर्ती सभी पदार्थो को जानते है ?। आप ऐसा कहोगे कि "प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ जगत्वर्ती सर्व वस्तुओ को जानता है।" तो वह योग्य नहि है, क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण निकट के प्रतिनियतक्षेत्र में रहे हुए तथा प्रतिनियत अर्थ का ही ग्राहक है। (अर्थात् प्रत्यक्ष तो इन्द्रियो के साथ संबंध रखनेवाली वर्तमानवस्तुओ को ही जानता है। इसलिए उससे अनागत, अतीत, दूरवर्ती तथा सूक्ष्म अतीन्द्रियपदार्थ जाने नहीं जा सकते ।) अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष तो विवादास्पद होने से उसमें कोई प्रमाण नहिं है। सभी प्रमाण इकटे मिलकर जगत्वर्ती सभी पदार्थो को जानते है, यह बात उचित नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष के सिवा बाकी के सभी प्रमाण प्रत्यक्षपूर्वक ही अर्थ का ग्राहक बनते है। इसलिए जहाँ प्रत्यक्षप्रमाण से ही सभी वस्तुयें जानी नहीं जा सकती, वहीं दूसरे प्रमाणो से तो किस तरह से जानी जा सकेगी? तथा संसार के बहोत जीव कुछ वस्तुओ को प्रत्यक्ष से जानके कुछ वस्तुओ को अनुमान से जान के कुछ वस्तुओको दूसरे प्रमाणो से जानके तथा धर्म इत्यादि अतीन्द्रिय पदार्थो को वेद से जानकर जगत के सभी पदार्थो को जान लेगा। इसलिए सभी जीव सर्वज्ञ बन जाने की आपत्ति आयेगी। वैसे ही संसार अनादि अनंत है। उसमें रही हुए वस्तुयें भी अनंतानंत है। उस वस्तुओ को क्रमशः जानती व्यक्ति अनंत काल के द्वारा भी किस तरह से सर्वज्ञ (सभी को जाननेवाला) हो सकेगा? अर्थात् जगत्वर्ती सभी पदार्थों को जाननेवाला कोई सर्वज्ञ नहीं है। उपरांत आपका सर्वज्ञ यथावस्थित वस्तु का जानकार है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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