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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ५७५/११९८ तार्किक गणों का जो कहना है कि, योगी एवं ईश्वर का अतीतानागतादिविषयक ज्ञान इन्द्रिय-सन्निकर्ष-जन्य न होने पर भी प्रत्यक्ष होता है, अतः उसका संग्रह करने के लिए 'अपरोक्षप्रमा-व्याप्तं प्रत्यक्षम्' ऐसा प्रत्यक्ष का लक्षण करना चाहिए (श्री गङ्गेशोपाध्याय ने कहा है कि, “प्रत्यक्षस्य साक्षात्कारित्वं लक्षणम् । निर्विकल्पके ईश्वरयोगिप्रत्यक्षे च प्रत्यक्षत्वं धर्मिग्राहकमानसिद्धम्" (न्या०तचि०पृ० ५७१) । वह तार्किकों का कहना अयुक्त है, क्योंकि प्रत्यक्ष नियमतः वर्तमान विषय का ही ग्राहक होता है, अतीतानागत का नहीं, (जैसा कि वार्तिककारने कहा है कि, - सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना" (श्लो॰वा०पृ० १६०) चिदानन्द पण्डित ने इसे ही दुहराया है - "प्रत्यक्षस्यासूक्ष्माव्यवहितविद्यमानार्थत्वव्याप्तेः" (नीति० पृ० १३६) । परिशेषतः भाट्टसम्मत प्रत्यक्ष-लक्षण ही यथार्थ है । इन्द्रियव्यतिरिक्तानि द्रव्याण्येषां च जातयः । प्रायश्च गुणकर्माणि प्रत्यक्षाणीति वक्ष्यते ।।९।। प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय होते हैं - 'इन्द्रिय-भिन्न द्रव्य, द्रव्यगत जातियाँ, गुण और कर्म ।' चिदानन्द पण्डित ने भी कहा है - मानमिन्द्रिययोगोत्थमिह प्रत्यक्षमुच्यते । द्रव्यं जातिर्गुणः कर्म विषयश्चतुर्विधः ।। (नीति पृ० ५७) अनुमानम्-व्याप्यदर्शनादसन्निकृष्टार्थज्ञानमनुमानम् । व्याप्य-दर्शन-जनित असन्निकृष्टार्थ विषयक ज्ञान को अनुमान कहा जाता है, जैसे-पर्वत में धूमवत्त्व के दर्शन से जनित अग्निमत्त्व का ज्ञान । यहाँ धूम में अग्नि की व्याप्यता क्या है? जो पदार्थ जिसके बिना नहीं रहता, वह उसका व्याप्य कहा जाता है, धूम अग्नि को छोडकर नहीं रहता, अतः धूम में अग्नि की व्याप्यता मानी जाती है । जो जिसके बिना भी रह जाता है, उसको उसका व्यापक कहा जाता है, अग्नि धूम के बिना भी निर्धूम अङ्गारों में रह जाती है, अतः अग्नि को धूम का व्यापक माना जाता है, व्याप्य नहीं। यहाँ धूम में ही अग्नि की व्याप्ति रहती है, अग्नि में धूम की नहीं, अतः इस व्याप्ति को विषम व्याप्ति कहते हैं । जो व्याप्ति परस्पर दो पदार्थों में रहती है, उसे समव्याप्ति कहा जाता है, जैसे-कृतकत्व और अनित्यत्व में, क्योंकि सभी घटादि कृतक (जन्य) पदार्थों में अनित्यत्व और सभी अनित्य पदार्थों में कृतकत्व रहता है । वार्तिककार ने उभयविध व्याप्ति (श्लो॰वा०पृ० ३४८ में) दिखाई है - यो यस्य देशकालाभ्यां समो न्यूनतोऽपि वा भवेत् । स व्याप्यो व्यापकस्तस्य समो वाप्याधिकोऽपि वा ।। व्याप्ति का लक्षण क्या है ? स्वाभाविक सम्बन्ध को व्याप्ति और उपाधि-रहित सम्बन्ध को स्वाभाविक कहा जाता है । चिदानन्द पण्डित ने भी कहा है - "साध्येन साधनस्य निरुपाधिकोऽन्वयः" (नीति पृ० १३७) । साध्य के साक्षात् प्रयोजक हेत्वन्तर को उपाधि कहते हैं । जहाँ पर वैसा उपाधिरूप हेत्वन्तर होता है, वहाँ उसमें वस्तुतः रहनेवाले व्याप्तिरूप साध्य-सम्बन्ध का आरोप करके वादी ने जिस हेतु का प्रयोग साध्य की सिद्धि के लिए किया है, वह साध्य का साधक (सोपाधिक होने के कारण) नहीं होता, जैसा कि वार्तिककार ने कहा है अन्ये परप्रयुक्तानां व्याप्तीनामुपजीवकाः । तैर्दृष्टैरपि नैवेष्टा व्यापकांशावधारणा ।। निषिद्धत्वेन हिंसानामधर्मत्वं प्रयुज्यते । तदभावे न तत्सिद्धिहिंसात्वादप्रयोजकात् ।। (श्लो० वा० पृ० ३५१-५२) अर्थात् ऐसे हेतु जो पर-प्रयुक्त (उपाधि-प्रयुक्त या औपाधिक) व्याप्ति के आश्रय (सोपाधिक) होते हैं, ऐसे हेतु भले ही पक्ष में दृष्ट हों, साध्य के साधक नहीं होते, जैसे कि, किसी अवैदिक या साङ्ख्याचार्य के द्वारा प्रयोग किया गया'अग्नीषोमीयहिंसा, अधर्मः, हिंसात्वाद्, बाह्यहिंसावत् ।' इस अनुमान में 'निषिद्धत्व' उपाधि है, क्योंकि 'निषिद्धत्व' धर्म ही वह हेत्वन्तर है, जो कि अधर्मत्व का साक्षात् प्रयोजक होता है, बाह्य हिंसा में भी वही अधर्मत्व का साधक होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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