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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ यह प्रत्यभिज्ञा एक विशिष्ट ज्ञान के रूप में संस्कार-सहित इन्द्रिय के द्वारा उत्पादित होती है । उसका विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है कि वहाँ 'सः' और 'अयम्' - ये दो भान उत्पन्न होते हैं, उनमें 'सः' - इस प्रकार के भान की जनिका शक्ति संस्कार-प्रसूत और 'अयम्' - इस प्रकार के भान की उत्पादिका शक्ति इन्द्रिय की देन होती है ।
(श्री पार्थसारथि मिश्र ने भी प्रत्यभिज्ञा को नाम-कल्पना का ही एक प्रकार माना है - "डित्थशब्देन तद्वाच्यं पूर्वावगतं डित्थमुपस्थाप्य तदात्मना पुरःस्थितोऽर्थो विकल्प्यते-डित्थोऽयमिति । किमुक्तं भवति ? योऽसावस्माकं डित्थः सोऽयं पुरःस्थितो नान्य इति । सेयं व्यक्तिप्रत्यभिज्ञैव पञ्चमीकल्पना, सा च शब्दविदां नामरूपितैव भवतीति नामकल्पनेति व्यवह्रियते" (शा.दी.पृ. ४२) ।
(जैसे न्यायसूत्रकार ने "प्रमेयता च तुलाप्रामाण्यवत्" (न्या.सू. २।१।१६) इस सूत्र में इन्द्रियादि का प्रमाण-प्रमाभाव विवक्षाधीन अनियत माना है, वैसे ही) प्रत्यक्ष ज्ञान की करणता इन्द्रिय, सन्निकर्ष या विशेषण-ज्ञानादि में मानी जा सकती है, (जैसा कि कुमारिल भट्ट ने कहा है - "यद्वेन्द्रियं प्रमाणं स्यात् तस्य वाऽर्थेन सङ्गतिः । प्रमाणफलते बुद्धयो विशेषणविशेष्ययोः । हानादिबुद्धिफलता प्रमाणं चेद्विशेष्यधीः ।।" (श्लो० वा० पृ० १५२-५६) अर्थात् इन्द्रिय या सन्निकर्ष को प्रमाण मानने पर विशेषण का निर्विकल्पक ज्ञान प्रमा, विशेषण-ज्ञान को प्रमाण मानने पर विशेष्यज्ञान प्रमा और विशेष्य-ज्ञान को प्रमाण मानने पर हानादि (हान, उपादान और उपेक्षा) के ज्ञान को प्रमा कहा जाता है) । इस प्रकार इन्द्रियार्थ-सन्निकर्षजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है-यह सिद्ध हो गया ।
श्री प्रभाकर का जो कहना है-साक्षात्प्रतीति को प्रत्यक्ष कहते हैं, उस प्रतीति में प्रमेय, प्रमाता और प्रमा-इस त्रिपुटी का भान होता है । (श्री शालिकनाथ मिश्र ने कहा है - साक्षात्प्रतीतिः प्रत्यक्षं मेयमातृप्रमासु सा । मेयेष्विन्द्रिययोगोत्था द्रव्यजातिगुणेषु सा ।। (प्र० पं० पृ० १०४) अर्थात् साक्षात्कारवती प्रतीति का नाम प्रत्यक्ष है, वह प्रमेय, प्रमाता
रूप) को विषय करती है । द्रव्य, जाति और गुणरूप प्रमेयांश में वह इन्द्रिय के संयोग, संयुक्तसमवाय और समवाय-इन तीन सन्निकर्षों से जनित होती है)।
श्री प्रभाकर के उस प्रत्यक्ष-लक्षण में जिज्ञासा होती है कि, साक्षात् प्रतीति क्या है ? यदि कहा जाय कि, जिस प्रतीति में विषय वस्तु का स्वरूपेण भान होता है, वह साक्षात्प्रतीति है, जैसे 'अयं घट:'-इत्यादि प्रतीतियों में घटादि का स्वरूपेण ही भान होता है, अतः इन्हें साक्षात्प्रतीति कहते हैं और अनुमित्यादि-प्रतीतियों में वह्नयादि का स्वरूपेण नहीं, अपि तु धूमसम्बन्धित्वादिरूपेण भान होता है, अतः इन्हें साक्षात्प्रतीति नहीं कहा जाता ।' तो ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि तब तो सविकल्पक प्रत्यक्ष को भी साक्षात्प्रतीति नहीं कह सकेंगे, क्योंकि उसमें भी नामादि विकल्प-सम्बन्धित्वेन ही घटादि पदार्थों का भान होता है, स्वरूपेण नहीं । यदि कहा जाय कि सविकल्प में पर-सम्बन्धित्वेन विषय का भान होने पर भी स्वरूपतः भी भान होता है, तब उसी प्रकार अनुमित्यादि में भी साक्षात्व का आपादन किया जा सकता है । सभी ज्ञानों में जो आत्मा (प्रमाता) और स्वरूप (प्रमा) का भान कहा जाता है, उसका भी निराकरण आगे किया जायेगा ।
बौद्धों का जो कहना है कि, "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" (न्या०बि०पृ० ४०) । 'कल्पनापोढ' पद के द्वारा सविकल्पक ज्ञान का निरास किया जाता है और 'अभ्रान्त' पद के द्वारा तैमिरिकादिके केश ग्रन्थ्याद्याकार निर्विकल्पक भ्रम की निवृत्ति की जाती है ।
वह बौद्धों का कथन भी उचित नहीं, क्योंकि सविकल्पक को प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध किया जा चूका है, अतः उसमें उनका प्रत्यक्ष-लक्षण अव्याप्त है । (श्री चिदानन्द पण्डित ने भी यही दोष दिया है - "नापि कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्, सविकल्पस्याप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्" (नीति० पृ० ५६) ।
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