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________________ ५६८/११९१ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ ___ बौद्धों के मत में जो अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण तथा अर्थक्रियासामर्थ्य को अविसंवादित्व कहा जाता है - "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थितिः । अविसंवादनम्” (प्र० वा० पृ० ३-४) ।।" वह भी उचित नहीं, क्योंकि अतीत और भाविविषयक अनुमान अपने अविद्यमान विषयों में प्रवृत्तिरूप अर्थक्रिया का जनक न हो सकने के कारण अविसंवादी और प्रमाण क्योंकर माना जायेगा ? स्मृति ज्ञान अप्रमा है, तथापि कुछ स्थलों पर अर्थक्रियाकारी होता है, अतः उसमें उक्त प्रमा लक्षण अतिव्याप्त भी है । फलतः अन्यान्य मतों का निराकरण हो जाने पर हमारा अज्ञाततत्वार्थ-ज्ञान प्रमा और उसका करण प्रमाण सिद्ध हो जाता है । तस्मादज्ञाततत्त्वार्थज्ञानसाधनमेव नः । प्रमाणमिति निर्णीतं तद्विशेषानथ ब्रुवे ।।४।। अब प्रमाण के भेद बताते हुए कहते है कि, प्रत्यक्षमनुमानं च शब्दं चोपमितिस्तथा । अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि मादृशाम् ।।५।। अर्थ : हम भाट्टगण छः प्रमाण मानते है - (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) शब्द, (४) उपमान, (५) अर्थापत्ति तथा (६) अनुपलब्धि या अभाव । अन्य दर्शन कितने प्रमाण मानते है, वह बताते हुए कहते हैं कि, चार्वाकास्तावदेकं द्वितयमपि पुनर्बोद्धवैशेषिको द्वौ भासर्वज्ञश्च सांख्यस्त्रितयमुदयनाद्याश्चतुष्कं वदन्ति । प्राहुः प्राभाकराः पञ्चकमपि च वयं तेऽपि वेदान्तविज्ञा: षटकं पौराणिकास्त्वष्टकमभिदधिरे संभवैतिह्ययोगात् ।।६।। चार्वाकगण एक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं, बौद्ध और वैशेषिक (प्रत्यक्ष और अनुमान) दो, नैयायिक प्रवर भासर्वज्ञ और सांख्य तीन (प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द), श्री उदयनाचार्यादि तार्किक (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द) चार, प्रभाकर (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति) पाँच, हम (भाट्ट) और वेदान्तिगण (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि) छ: तथा पौराणिकाचार्य (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द अर्थापत्ति, अनुपलब्धि, सम्भव और ऐतिह्य नाम के) आठ प्रमाण मानते हैं ।।६।। अब प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण बताते हैचक्षुर्नाम कनीनिकान्तरगतं तेजोऽथ जिह्वाग्रगस्तोयांशो रसनं क्षितेरवयवो घ्राणं च घोणोदरे । सर्वाङ्गप्रसृताश्च मारुतलवास्त्वङ्नाम कर्णोदरव्योमैव श्रवणं मनस्तु विभु तद्देहे च कार्यावहम् ।।७।। प्रत्यक्ष - इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से जनित प्रमा ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमा और उसके करण को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता है । इन्द्रिय का लक्षण श्री पार्थसारथि मिश्र ने किया है - "यत्सम्प्रयुक्तेऽर्थे विशदावभासं ज्ञानं जनयति, तदिन्द्रियम्" (शा.दी.पृ. ३६) । भाट्टगण (१) चक्षु, (२) रसन, (३) घ्राण, (४) स्पर्शन, (५) श्रोत्र और (६) मन, छ: इन्द्रियाँ मानते हैं । नेत्रगत काली पुतली के अन्दर रहनेवाले तेज को चक्षु, जिह्वा के अग्र भाग में विद्यमान जलांश को रसना, नासान्तवर्ती पार्थिव अंश को घ्राण, पूरे शरीर में व्याप्त वायवीय भाग को त्वक्, कर्ण-कुहरस्थ आकाश को श्रोत्र इन्द्रिय कहते हैं । पार्थसारथि मिश्र ने शास्त्रदीपिका (पृ. ३६) में कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न दिग्भाग को श्रोत्र कहा है । मन विभु (विश्वव्याप्त) होने पर भी तत्तद्देहावच्छेदेन कार्यकारी माना जाता है । मनोविभुत्व का निराकरण न्यायकुसुमाञ्जलि के तृतीयस्तबक में किया गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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