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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
५६७/११९० सकता, अतः विवश होकर यह मानना पड़ेगा कि 'इदं रजतम्' - यह एक ही विशिष्टात्मक ज्ञान है, जो कि एक ही पदार्थ का इदं और रजतम् - दोनों रूपों में निर्देश करता है, अतः वह भ्रम ज्ञान कहलाता है, उसकी व्यावृत्ति करने के लिए उक्त लक्षण में 'तत्त्व' पद सार्थक है ।
अज्ञाततत्त्वावगाही प्रमा ज्ञान के करण होने के कारण इन्द्रियादि को प्रमाण माना जाता है [प्रमाण और फल (प्रमा) का स्वरूप दिखाते हुए श्री कुमारिल भट्ट ने प्रासङ्गिक रूप में कहा है -
"यद्वेन्द्रियं प्रमाणं तस्य वा अर्थेन सङ्गतिः । मनसो वेन्द्रियैर्योग आत्मना सर्व एव वा ।। तदा ज्ञानं फलं तत्र व्यापाराच्च प्रमाणता । व्यापारो न यदा तेषां तदा नोत्पद्यते फलम् ।।' (श्लो०वा०पृ० १५२) अर्थात् प्रत्यक्ष-स्थल पर जब आत्मा का मन से, मन का इन्द्रिय से और इन्द्रिय का पदार्थ से सन्निकर्ष स्थापित होता
। घटादि पदार्थों का ज्ञान होता है. अतः जब इन्द्रिय को या प्रत्येक सन्निकर्ष अथवा तीनों सन्निकर्षों को सामूहिकरूपेण प्रमाण माना जाता है, तब ज्ञान को प्रमा कहा जाता है, क्योंकि ‘प्रमाण' शब्द 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' - इस व्युत्पत्ति से प्रमा के करण का बोधक है, इन्द्रियादि को अपने सन्निकर्षादि व्यापाररूप असाधारणता के कारण प्रमा का करण माना जाता है, जैसे कि श्री उम्बेक भट्ट ने कहा है - "प्रमाणशब्दः करणवाची, 'साधकतमं करणम्' तमेवार्थश्चातिशयः" (ता.टी.पृ. १३५) । वार्तिककार कहते हैं - प्रकृष्टसाधनत्वाञ्च प्रत्यासत्तेः स एव नः । करणं तेन नान्यत्र कारके स्यात् प्रमाणता ।। (श्लो०वा०पृ० १५५)
'प्रमाकरणम् प्रमाणम्-इस व्युत्पत्ति में प्रमा' शब्द लक्षणा वृत्ति के द्वारा प्रमा के कार्यभूत प्राकट्य (ज्ञातता) का भी बोधक है, अतः प्राकट्यरूप प्रमा के करणीभूत प्रमा ज्ञान को प्रमाण भी कह दिया जाता है, इतने मात्र से हम (भाट्टगण) फल प्रमाणवादी कह दिये जाते हैं । (बौद्ध प्रमाणफलवादी कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रमाणभूतज्ञान को ही फल (प्रमारूप) मानते हैं । उनका कहना है कि कुठारादि करणभूत पदार्थों के आश्रयीभूत पदार्थों पर ही द्वैधीभावरूप फल उत्पन्न हुआ करता है, अतः ज्ञानस्थल पर भी प्रमाण और फल की विषयैकता तभी निभ सकती है, जब कि ज्ञान को ही प्रमाण और फल माना जाय, अतः सौत्रान्तिक का सिद्धान्त है कि, बाह्य विषय के द्वारा ज्ञान में आहित विषयाकार प्रमाण, ज्ञान का अपना आकार प्रमा और बाह्य विषय प्रमेय होता है । योगाचार बाह्य विषय नहीं मानते, अतः उनके मत में अनादि वासना परिकल्पित ज्ञानगत विषयाकार प्रमेय, ज्ञान का स्वाकार प्रमाण तथा स्वसंवित्ति फल है । इनका खण्डन करते हुए वार्तिककार ने कहा है - "विषयैकत्वमिच्छंस्तु यः प्रमाणं फलं वदेत् । साध्यसाधनयोर्भेदो लौकिकस्तेन बाधितः ।।" (श्लो०वा०पृ. १५७) इसका स्पष्टीकरण आगे भी किया जायेगा] ।
तार्किकगण प्रमा के करण को प्रमाण, यथार्थानुभव को प्रमा तथा स्मृति-भिन्न ज्ञान को अनुभव कहा करते हैं । इनका प्रमा-लक्षण (यथार्थानुभवः) अनुवाद में अतिव्याप्त होता है, क्योंकि अनुवाद गृहीत-ग्राही होने के कारण अप्रमा सिद्ध किया जा चुका है और तार्किकों के उक्त प्रमा-लक्षण में अनुवाद-व्यावर्तक कोई पद नहीं है । प्राभाकरगण जो कहते हैं कि, अनुभूति प्रमाण है और स्मृति-भिन्न ज्ञान अनुभूति माना जाता है - "प्रमाणमनुभूतिः सा स्मृतेरन्या स्मृतिः पुनः । पूर्वविज्ञानसंस्कारमात्रजं ज्ञानमुच्यते ।।" (प्र०पं०पृ० १०४)
वह (प्रभाकर-सम्मत) प्रमा का लक्षण भी भ्रम ज्ञान में अतिव्याप्त है, क्योंकि वह भी स्मृति से भिन्न ज्ञान है और उसकी भी सिद्धि की जा चुकी है । दूसरी बात यह भी है कि प्रभाकर-मतानुसार प्रत्येक ज्ञान आत्मा, विषय और ज्ञान- इस त्रिपुटी का प्रकाशक एवं आत्मविषयकत्वेन प्रत्यक्ष प्रमाण माना जाता है, किन्तु आत्मविषयक स्मृति ज्ञान में स्मृतिभिन्नत्व रूप प्रमाणत्व की अव्याप्ति भी है ।
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