SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 577
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५० / ११७३ षड् समु भाग-२, परिशिष्ट-५ 1 हैं । सम्यक् चारित्र के द्वारा जो मोक्ष को प्राप्त हुआ है, उस मुनि के प्राणहीन शरीर को देखकर भी भक्तिभाव उत्पन्न हैं। इस रीति से भाव की अभिव्यक्ति के साधन होने से नाम आदि तीनों वस्तुरूप हैं। नाम आदि सभी भाव के साधन हैं, पर भाव जिनेन्द्र को देखकर भक्ति का जितना उत्कर्ष प्रकट होता है उतना जिनेन्द्र का नाम सुनने पर अथवा जनप्रतिमा के देखने पर नहीं होता । इसके अतिरिक्ति नाम आदि भाव के उल्लास में कभी कारण बनते हैं और कभी नहीं बनते । भाव जिनेन्द्र भक्ति के अत्यंत उल्लास में नियत कारण है, इसलिए प्राचीन आचार्य नाम आदि की अपेक्षा भाव का उत्कर्ष अधिक मानते हैं नामादि तीन का भाव के साथ अविनाभाव बताते हुए कहते है कि, 1 अभिन्नवस्तुगतानां तु नामादीनां भावाविनाभूतत्वादेव वस्तुत्वम्, सर्वस्य वस्तुनः स्वाभिधानस्य नामरूपत्वात्, स्वाकारस्य स्थापनारूपत्वात् कारणतायाश्च द्रव्यरूपत्वात्, कार्यापन्नस्य च स्वस्य भावरूपत्वात् । (जैनतर्क भाषा) अर्थ : अभिन्न वस्तु में रहनेवाले नाम आदि तो भाव के साथ अविनाभाव होने से ही वस्तु रूप हैं। समस्त वस्तुओं का अपना अभिधान नाम रूप है, अपना आकार स्थापना स्वरूप है, वस्तु में रहनेवाला कारणभाव, द्रव्य स्वरूप है। कार्य रूप में परिणत अपना स्वरूप 'भाव' है । I कहने का आशय यह है कि, भाव को वस्तुरूप मान लेने पर परिणामी कारण रूप द्रव्य के विषय में वस्तु होने की शंका नहीं रह सकती। भाव के साथ द्रव्य एक वस्तु में है । मृत्पिंड घट के रूप में परिणत होता है, इसलिए यदि भव घट वस्तु है, तो मृत्पिड रूप द्रव्यघट भी अवश्य वस्तु है जो परिणामी कारण नहीं हैं, उनमें भी नाम और स्थापना हो सकती है, इसलिए नाम और स्थापना के वस्तुरूप होने में शंका का अवसर है । दरिद्र बालक नामेन्द्र है, काष्ठ अथवा पत्थर की प्रतिमा स्थापना इन्द्र है, इन दोनों का स्वर्ग के अधिपति भाव इन्द्र से बहुत भेद है, इसलिए उनके वस्तु रूप होने में शंका हो सकती है । पर जब एक वस्तु में नाम और स्थापना हों तब भाव के समान अथवा द्रव्य के समान वस्तु स्वरूप होने में शंका नहीं हो सकती। एक वस्तु का वाचक पद नाम है, उसकी आकृति स्थापना है उत्तर काल में प्रकट होनेवाले पर्यायों का उत्पन्न करनेवाला स्वरूप द्रव्य है । कार्य रूप से अभिव्यक्त स्वरूप भाव है । उदाहरण के लिए घट को लीजिए । घट अर्थ का वाचक घट पद नाम है। घट का आकार स्थापना है, उत्तरवर्ती पायों के उत्पन्न करने की शक्ति द्रव्य घट है, घट रूप से अभिव्यक्ति भाव घट है, यहाँ पर भाव स्वरूप घट जिस प्रकार वस्तुरूप है, इस प्रकार भावी क्षणों में होनेवाले पर्यायों की उत्पादक शक्ति घट से भिन्न अभिन्न होने के कारण वस्तुरूप है । यह शक्ति वर्तमान घट में प्रतीत हो रही है - इसलिए वस्तु है, आकार भी घट में प्रतीत हो रहा है उसका भी घट के साथ अभेद है - अतः वह भी वस्तुरूप है, वर्णात्मक घट पद भी घट अर्थ के साथ प्रतीत होता है - अतः वह भी वस्तु है घट अर्थ जिस प्रकार घट कहा जाता है। इस प्रकार घट पद भी घट कहा जाता है। घट लाया जा सकता है और ले जाया जा सकता है, घट पद बोला जा सकता है, लाने और ले जाने के समान बोला जाना भी व्यवहार है । भाव घट के समान घट पद भी व्यवहार का विषय है इसलिए वस्तु है । अब 'नाम' की वस्तुरुपता को स्पष्ट करते हुए युक्तिपूर्वक बताते है - यदि च घटनाम घटधर्मो न भवेत्तदा ततस्तत्संप्रत्ययो न स्यात् तस्य स्वापृथग्भूतसम्बन्धनिमित्तकत्वादिति सर्व नामात्मकमेष्टव्यम् । (जैनतर्क भाषा ) अर्थ : और यदि घटनाम घट का धर्म न हो तो घट नाम से घट की प्रतीति नहीं होनी चाहिए । घट पद से घटरूप अर्थ के ज्ञान का निमित्त सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध स्व से अर्थात् घट रूप वाच्य अर्थ और घट पद रूप वाचक से पृथक् नहीं है, इसलिए समस्त वस्तु नामात्मक माननी चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy