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________________ ५४०/११६३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ ___ जो नाम ही नहीं, स्थापना सैन्धव को और द्रव्य सैन्धव को जानता है, उसको उसी भाव सैन्धव का ज्ञान होता है, जो स्थापना और द्रव्य के प्रतिकूल नहीं होता । अश्व के आकार को स्थापना सैन्धव और अश्व के शरीर को जो द्रव्य सैन्धव समझता है, वह चेतन अश्व को भाव सैन्धव समझेगा । लवण उसके लिए भाव सैन्धव नहीं हो सकता, एक ही अर्थ के विषय में नाम आदि चार निक्षेप किये जाते हैं । स्थापना और द्रव्य निक्षेप अश्व के विषय में हो और भाव निक्षेप लवण के विषय में हो, यह नहीं हो सकता । स्थापना और द्रव्य निक्षेप के द्वारा जिसने सैन्धव को अश्व प्राणी के रूप में जाना है, वह अश्व को ही भाव निक्षेप के रूप में मानेगा । वह जब सुनेगा 'सैन्धव लाओ' तो स्थापना-द्रव्य और भाव निक्षेप के अनुसार अश्व को समझ लेगा । प्रकरण के ज्ञान की अपेक्षा नहीं करनी पडेगी । यदि करनी भी पडेगी तो प्रकरण का ज्ञान निक्षेपों के अनुसार शीघ्र हो जायेगा । जिस में अभिप्राय है, उस अर्थ को समझ लेने से योग्य विनियोग हो सकेगा । वक्ता अश्व को लेकर अपने कार्य की सिद्धि कर सकेगा । इस रीति से निक्षेप वाच्य अर्थ के निश्चय में कारण बनते हैं । अब निक्षेप कब फलवान बनता है, वह बताते है - निक्षेप का फलवत्त्व : मङ्गलादि पदार्थनिःक्षेपान्नाममङ्गलादिविनियोगोपपत्तेश्च निःक्षेपाणां फलवत्त्वम्, तदुक्तम्-"अप्रस्तुतार्थापाकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाञ्च निःक्षेपः फलवान्" ( ) इति । (जैनतर्क भाषा) अर्थ : मङ्गल आदि पदार्थो के निक्षेप से नाम मङ्गल आदि का विनियोग होने के कारण निक्षेप फलवान् है । अन्यत्र कहा है कि - "जिस का प्रकरण नहीं है, उस अर्थ को हटाने से और जिस अर्थ का प्रकरण है, उसका निरूपण करने से निक्षेप फल वाला है ।" कहने का मतलब यह है कि, मंगल के विषय में निक्षेपों के द्वारा नाम मङ्गल आदि का उचित विनियोग निक्षेपों के फल को प्रकाशित करने के लिए उदाहरण है । नाम आदि निक्षेपों के भेद से मङ्गल चार प्रकार का है - नाम मङ्गल, स्थापना मङ्गल, द्रव्य मङ्गल और भाव मङ्गल । जो वस्तु मङ्गल स्वरूप नहीं है पर उसका मङ्गल नाम रख दिया है वह वस्तु नाम मङ्गल कही जाती है । जिन वर्णों का उच्चारण करके मङ्गल पद बोला जाता है अथवा जिन वर्णों को लिखकर मङ्गल पद लिखा जाता है उन वर्णो का समूह भी नाम मङ्गल है । स्वस्तिक आदि का चित्र लोक में मंगल रूप माना जाता है । वह स्थापना मङ्गल है । जिसको किसी काल में मंगल शब्द के वाच्य अर्थ का ज्ञान था और उस ज्ञान से उत्पन्न संस्कार उसके आत्मा में पीछे भी हैं, वह उत्तरवर्ती काल में मंगल ज्ञान के संस्कार से युक्त होता है और मंगल ज्ञान से यदि रहित होता है तो द्रव्य मंगल कहा जाता है । इस प्रकार के ज्ञाता का जीव से रहित शरीर भी द्रव्य मंगल कहा जाता है । सुवर्ण, रत्न, दहीं, अक्षत आदि भी द्रव्य मंगल हैं । जिसको मङ्गल शब्द के वाच्य अर्थ का वर्तमान काल में ज्ञान है वह आत्मा भाव मङ्गल है । जिनेन्द्र आदि का नमस्कार भी भाव मङ्गल है । जो मंगल के इन चार निक्षेपों को जानता है उसको मङ्गल शब्द के वाच्य अर्थ के विषय में संदेह अथवा भ्रम नहीं उत्पन्न होता । वह प्रकरण के अनुसार जिस में अभिप्राय है, उस अर्थ को जान लेता है और अर्थ का उचित विनियोग करता है। निक्षेप के चार प्रकार : ते च सामान्यतश्चतुर्धा-नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् ।(2) (जैनतर्क भाषा) अर्थ : और वे सामान्य रूप से चार प्रकार के हैं, नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव भेद से । नाम निक्षेप का स्वरूप : तत्र प्रकृतार्थनिरपेक्षो नामार्थान्यतरपरिणतिर्नामनिःक्षेपः । यथा सङ्केतितमात्रेणा 2. नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ।। त.सू. १/५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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