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________________ २८/६५१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन "ईश्वर क्रीडा से जगत-निर्माण में प्रवृत्त हुए है।" ऐसा कहोंगे तो जगत ईश्वर का क्रीडाक्षेत्र बन जायेगा। ईश्वर भी बालक की तरह राग-द्वेषवाले हो जायेंगे। "ईश्वर अनुग्रह और निग्रह के लिए जगत का निर्माण करते है।" वैसा कहोंगे तो ईश्वर राजा की तरह राग-द्वेष वाले हो जायेंगे। जैसे राजा शिष्टोको अनुग्रह राग से और दुष्टो के निग्रह के लिए द्वेष से प्रवृत्ति करता है। वैसे ईश्वर भी अनुग्रह-निग्रह के लिए जगतनिर्माण की प्रवत्ति करते हो, तो राजा की तरह रागी-द्वेषी बन जायेंगे, वीतरागी नहीं रहेंगे। "ईश्वर स्वभाव से ही जगत का निर्माण करता है।" वैसा कहोंगे तो अचेतनपदार्थो का भी वही स्वभाव मान लेना चाहिए कि जैसे कारणो का संयोग होता है वैसे स्वरुप में अपनी प्रवृत्ति स्वभाव से ही करता है। उसमें ईश्वर की कर्ता के रुप में कल्पना करना जरुरी नहीं है। इस प्रकार “कार्यत्व" हेतु बुद्धिमान कर्ता के रुप में ईश्वर को सिद्ध नहीं कर सकता है। इस तरह से पृथ्वी इत्यादि बुद्धिमान् कर्ता के द्वारा रची गई है। क्योंकि (१) सन्निवेशविशिष्ट है। (अर्थात् बनावटवाले है।) (२) अचेतन परमाणु उपादानकारण है। (३) पहले नहीं थे वह उत्पन्न होते है। इत्यादि हेतुओ का खंडन कार्यत्व हेतु की तरह स्वयं सोच लेना। जिस तरह से कार्यत्व हेतु में शंका-समाधान किये थे, उस तरह से भी स्वयं समज लेना। जिस प्रकार से कार्यत्व हेतु में भागासिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचार, बाध इत्यादि दोष आते है, वे सभी दोष इस हेतुओ में भी सोच लेना। कार्यत्व हेतु में दूसरे बहोत दोष आते होने पर भी विरुद्ध बडा दोष है। क्योंकि पृथ्वी आदि में बुद्धिमत्कर्तृत्व की सिद्धि करने के लिए जो घट का उदाहरण दिया है, उससे असर्वज्ञ, शरीरि और असर्वगत कर्ताकी सिद्धि होती है। इससे कार्यत्व हेतु से सर्वज्ञ, अशरीरि-सर्वगत कर्ता सिद्ध होने के बजाय, घट दृष्टांत के कारण असर्वज्ञ, शरीरि, असर्वगत कर्ता सिद्ध होने से कार्यत्व हेतु विरुद्ध बन जाता है। धूम से अग्नि का अनुमान करने में यह दोष नहीं है। क्योंकि पर्वत में रहे हुए तृण और वृक्ष के सूखे पत्ती की विशेष अग्नि में और महानसीय विशेष अग्नि में रहे हए सामान्य नाम के अग्नित्वधर्म का अनुभव होता है और उससे अग्नि का अनुमान करना सहज बन जाता है। परन्तु यहाँ पृथ्वी आदि का सर्वज्ञ कर्ता और घटआदि का असर्वज्ञ कर्ता, ऐसे दो विशेष कर्ताओ में से प्राप्त होता कर्तृत्व नाम का सामान्य धर्म महसूस नहीं होता है, कि जिससे सामान्यकर्ता का अनुमान किया जा सके। क्योंकि कार्यत्व हेतु के योग से पहले कहीं भी सर्वज्ञकर्ता के दर्शन हुए नहीं है, कि जिससे उसमें रहे हुए सामान्यधर्म का ज्ञान किया जा सके। सर्वज्ञ अशरीरि कर्ता का पहले दर्शन हुआ न होने से उसका अनुमान भी असंभवित है। क्योंकि अनुमान में लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन होने के बाद ही लिंगि का अनुमान किया जाता होता है। व्यभिचारिणश्चामी बुद्धिमन्तमन्तरेणापि विद्युदादीनां प्रादुर्भावविभावनात्, स्वप्नाद्यवस्थायामबुद्धिमत्पूर्वस्यापि कार्यस्य दर्शनाचेति । कालात्ययापदिष्टाश्चैते, प्रत्यक्षागमबाधितपक्षा-नन्तरं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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