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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन
अदृष्टापेक्षस्य च कर्तृत्वे किं तत्कल्पनया, जगत एव तदधीनतास्तु किमनेनांतर्गडुना । चतुर्थपञ्चमयोस्तु रागद्वेषताभावः प्रसज्यते तथाहि -" रागवानीश्वरः E-25 क्रीडाका - रित्वाष्टालवत्, तथा अनुग्रहप्रदत्वाद्राजवत्, तथा द्वेषवानसौ निग्रहप्रदत्वात्तद्वदेव” इति । अथ स्वभावतः, तर्ह्यचेतनस्यापि जगत एव स्वभावतः प्रवृत्तिरस्तु किं तत्कर्तृकल्पनयेति । न कार्यत्वहेतुर्बुद्धिमन्तं कर्तारमीश्वरं साधयति I एवं सन्निवेशविशिष्टत्वादचेतनोपादानत्वादभूतभावित्वादित्यादयोऽपि स्वयमुत्थाप्याः, तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् I किंच क्षित्यादेर्बुद्धिमत्पूर्वकत्वे साध्ये प्रदीयमानाः सर्वेऽपि हि हेतवो विरुद्धा दृष्टान्तानुग्रहेण सशरीरासर्वज्ञासर्वगतकर्तृपूर्वकत्वसाधनात् । न च धूमात्पावकानुमानेऽप्ययं दोषः, तत्र तार्णपार्णादिविशेषाधारवह्निमात्रव्याप्तस्य धूमस्य दर्शनात् 1 नैवमत्र सर्वज्ञासर्वज्ञकर्तृविशेषाधिकरणतत्सामान्येन कार्यत्वस्यास्ति व्याप्तिः, सर्वज्ञस्य कर्तुरतोऽनुमानात्प्रागसिद्धेः ।
व्याख्या का भावानुवाद :
वैसे ही ईश्वर की जगतनिर्माण में प्रवृत्ति है । वह क्या (१) यथारुचि है या (२) कर्म की परतंत्रा से है ? या (३) करुणा से है ? या (४) क्रीडा से है ? या (५) निग्रह अनुग्रह करने के लिए है या (६) स्वभाव ही प्रवृत्ति है ?
"ईश्वर की जगतनिर्माण में प्रवृत्ति यथारुचि है ।" वैसा कहोंगे, तो जैसा जगत है उससे कभी विलक्षण जगत भी बन जाने की आपत्ति आयेगी ।
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"जीवो के पुण्य-पाप कर्मों को अधीन होकर ईश्वर जगत का निर्माण करते है ।" ऐसा कहोंगे तो ईश्वर की स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी ।
" करुणा से ईश्वर जगत का निर्माण करते है ।" वैसा कहोंगे तो ईश्वर सारे जगत को सुखी ही करेगा । यदि ऐसा कहोंगे कि "जीव पूर्व में इकट्ठे किये हुए कर्मों के कारण दुःख का अनुभव करता है, उसमें ईश्वर क्या करेगा ? ईश्वर तो करुणा से भरे हुए ही है ।" तो ईश्वर का जगत को सुखी करने का पुरुषार्थ क्या रहा ? ईश्वर से बलवान तो कर्म सिद्ध हो गया ।
आप ऐसा कहोंगे कि “ईश्वर जगत निर्माण में पुण्य-पापरूप अदृष्ट की अपेक्षा रखता है ।" तो फिर ईश्वर की कल्पना की क्या आवश्यकता है । सारा जगत ही अदृष्ट के अधीन मानो न ! उसमें क्या दिक्कत है ? जगत को ईश्वर के परतंत्र मानने की क्या जरुरत है ? ऐसे गले में हुए निरर्थक मांसपिण्ड अन्तर्गडु की तरह ईश्वर की कल्पना से क्या ? अर्थात् ईश्वर की कल्पना से कोई अर्थ नहीं है ।
(E-25) - तु० पा० प्र० प० ।
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