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________________ ५२२ / ११४५ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- ४ अर्थ : जिज्ञासा-काल आदि कौन हैं ? उत्तर (१) काल, (२) आत्मरूप, (३) अर्थ, (४) सम्बन्ध, (५) उपकार, (६) गुणिदेश, (७) संसर्ग और (८) शब्द, ये आठ हैं 1 (१) अब प्रथम प्रकार का निरुपण करते है तत्र स्याज्जीवादिवस्त्वस्त्येवेत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्काला: शेषानन्तधर्मा वस्तुन्येकत्रेति तेषां कालेनाभेदवृत्तिः । अर्थ : किसी अपेक्षा से जीव आदि वस्तु है ही, यहाँ जिस काल में जीव आदि में अस्तित्व है उसी काल में उन वस्तुओं में शेष अनन्त धर्म भी हैं, यह काल से अभेदवृत्ति है । कहने का मतलब यह है कि, अर्थ का धर्म के साथ भेद भी है और अभेद भी । घट आदि अर्थ जिस काल में हैं, उस काल में उनके सत्त्व आदि धर्म भी हैं । काल के साथ जिस प्रकार घट का सम्बन्ध है, इस प्रकार घट के धर्मों का भी सम्बन्ध है । एक काल में सम्बन्ध होने से समस्त धर्म काल की अपेक्षा से अभिन्न हैं । इस रीति से विचार करने पर जिस काल में घट में सत्त्व है उसी काल में पर- द्रव्य आदि की अपेक्षा से असत्त्व भी है । एक काल में होने के कारण सत्त्व और असत्त्व का अभेद है । जिस प्रकार सत्त्व का काल के कारण असत्त्व के साथ अभेद है, इस प्रकार शेष धर्मों के साथ भी अभेद है। (२) द्वितीय प्रकार का निरूपण - यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिः । अर्थ : जीव आदि का अथवा घट आदि का गुण होना जिस प्रकार अस्तित्व का आत्मरूप है, इस प्रकार अनन्त गुणों का भी यही आत्मरूप है । इस रीति से आत्मरूप के द्वारा अभेद वृत्ति है । (३) तृतीय प्रकार का निरूपण - य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाभेदवृत्तिः । अर्थ : जो द्रव्य-रूप अर्थ अस्तित्व का आधार है, वही अन्य धर्मो का भी आधार है, इस कारण अर्थ के द्वारा अभेदवृत्ति है । (४) चतुर्थ प्रकार का निरूपण य एव चाविष्वग्भावः सम्बन्धोऽस्तित्वस्य स एवान्येषामिति सम्बन्धेनाभेदवृत्तिः । - अर्थ : अस्तित्व का जीव आदि के साथ जो अविष्वग्भाव नामक सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध अन्य धर्मो का भी है। इस से सम्बन्ध के द्वारा अभेदवृत्ति है । (५) पंचम प्रकार का निरूपण य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तत्वकरणं स एवान्यैरपीत्युपकारेणाभेदवृत्तिः । अर्थ : अस्तित्व जिस उपकार को करता है, वही उपकार अन्य धर्म भी करते है । वह उपकार से अभेदवृत्ति है । यहाँ पर उपकार का अर्थ है अपने रंग में रंगना । अस्तित्व के कारण वस्तु सत् प्रतीत होती है । प्रमेयत्व के कारण प्रमेय प्रतीत होती है । वाच्यत्व के कारण वाच्य प्रतीत होती है । लाल रंग वस्त्र को लाल और पीला रंग वस्त्र को पीला करता है, अस्तित्व आदि धर्म भी अर्थ को अपने सम्बन्ध से अपने स्वरूप के साथ प्रकाशित करते है । धर्मी को अपने स्वरूप के साथ प्रकाशित करना धर्मो का उपकार है । (६) षष्ठ प्रकार का निरूपण - य एव गुणिनः सम्बन्धोदेशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य स एवान्येषामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्तिः । अर्थ : अस्तित्व धर्म गुणी अर्थ के जिस क्षेत्ररूप देश में रहता है, वही देश अन्य धर्मों का भी है - यह गुणी के देश के द्वारा अभेदवृत्ति है । (७) सप्तम प्रकार का निरूपण य एव चैकवस्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्गः स एवान्येषामिति संसर्गेणाभेदवृत्तिः । अर्थ : अस्तित्व का जीव आदि के साथ एक वस्तुरूप से जो संसर्ग है वही, अन्य धर्मोंका भी है, यह संसर्ग से अभेदवृत्ति है । सम्बन्ध और संसर्ग के बीच जो भेद है, वह बताते है - गुणीभूतभेदादभेदप्रधानात् सम्बन्धाद्विपर्ययेण संसर्गस्य - भेदः । अर्थ : जिसमें भेद गौण है और अभेद प्रधान है - इस प्रधान के सम्बन्ध से विपरीत स्वरूपवाला होने के कारण 1 संसर्ग का भेद है । कहने का आशय यह है कि, पहले अविष्वग्भाव नामक सम्बन्ध का वर्णन हुआ है वही संसर्ग है । इन दोनों में भेद का कोई लक्षण नहीं प्रतीत होता । इस शंका के उत्तर में कहा है- सम्बन्ध और संसर्ग में अभेद है । परन्तु भेद भी है, सम्बन्ध में भेद गौण होता है और अभेद प्रधान होता है, इसका उलटा रूप संसर्ग में है, संसर्ग में अभेद गौण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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