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सप्तभंगी
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आती है उसका दूर करना अभेद वृत्ति की प्रधानता है । पर्यायार्थिक नय के द्वारा सत् आदि पद की शक्ति केवल सत्ता आदि में प्रतीत होती है और उसका पर्यवसान अन्यापोह में होता है । इस दशा में 'सत्' पद जो असत् नहीं है उनका ज्ञान कराता है । केवल सत्त्व आदि धर्म में प्रतिपादन की शक्ति है इस प्रकार प्रतीत होने पर सत् आदि पद की सत्ता से भिन्न अन्य धर्मों में लक्षणा की जाती है । इस विवेचना के अनुसार अनन्त धर्मरूप शक्य अर्थों के ज्ञान में रुकावट को दूर करना अभेद वृत्ति की प्रधानता है । तात्पर्य उपपन्न नहीं होता - इस कारण अन्य अनन्त धर्मों में सत् आदि पद की लक्षणा उपचार है । अभेद की प्रधानता में शक्य रूप में सत् आदि पद अनन्त धर्मों को प्रतिपादित करते हैं । उपचार की दशा में उन्हीं अनन्त धर्मों में सत् आदि पद लक्षणा के द्वारा ज्ञान उत्पन्न करते हैं । ___ जब वस्तु का धर्म नय के द्वारा प्रकाशित होता है । तब भेद के प्रधान होने से अथवा भेद का उपचार होने से क्रम से निरूपण होता है । क्रम से धर्म का प्रतिपादक वचन विकलादेश कहा जाता है ।
यहाँ पर पू. महोपाध्यायजीने पू. आचार्यदेवसूरिजी के अनुसार प्रत्येक भङ्ग का सकलादेश और विकलदेश के रूप में निरूपण किया है । अन्य आचार्य पहले तीन भङ्गों को सकलादेश-रूप और पिछले चार भङ्गों को विकलादेश मानते हैं । 11 तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य में व्याख्याकार श्री सिद्धसेन गणि-स्यादस्ति, स्याद् नास्ति और स्याद् अवक्तव्यः इन तीन भङ्गों को सकलादेश कहते हैं और अन्य भङ्गों को विकलादेश कहते हैं । क्रम और युगपत् का विवेचन :
ननु कः क्रमः किं वा यौगपद्यम् ! उच्यते-यदास्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा तदैकशब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यभावात् क्रमः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामापत्रस्यानेकाशेषरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद्योगपद्यम् । (जैनतर्कभाषा ।)
अर्थ : क्रम क्या है और यौगपद्य क्या है ? जब काल आदि के द्वारा अस्तित्व आदि धर्मों के भेद की विवक्षा की जाती है तब एक शब्द की अनेक अर्थों के प्रकाशित करने में शक्ति नहीं होती है, इसलिये क्रम होता है । जब उन्हीं धर्मों का काल आदि के द्वारा अभिन्न स्वरूप कहा जाता है तब एक ही शब्द एक धर्म का प्रकाशन करके एक धर्म के स्वरूप को प्राप्त करनेवाले अन्य समस्त धर्मात्मक अर्थो का प्रतिपादन करता है, इस रूप से अनन्तधर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन होने से योगपद्य कहा जाता है ।
कहने का मतलब यह है कि, घट आदि में सत्त्व आदि अनेक धर्म हैं, वे परस्पर भिन्न हैं । जब उनके भेद को प्रधानरूप से प्रकाशित करने की इच्छा हो, तब क्रम से ही प्रतिपादन हो सकता है । 'अस्ति' पद जब सत्त्व का प्रतिपादन करता है - तब नास्ति पद असत्त्व का प्रतिपादन करता है । केवल अस्ति पद असत्त्व आदि अनेक धर्मों का प्रकाशन नहीं कर सकता । जब एक धर्म का अन्य धर्मों के साथ अभेद मान लिया जाता है तब कोई एक अस्ति अथवा नास्ति पद समस्त धर्मो को एक काल में कहने लगता है।
1 सकलादेश एवं विकलादेश साधक कालादि आठ का निरूपण : अब कालादि आठ का नाम बताते है
के पुनः कालादयः ! । उच्यते-कालआत्मरूपमर्थः सम्बन्ध उपकार: गुणिदेशः संसर्ग: शब्द इत्यष्टौ (जैन तर्कभाषा) 11.स्याद्वादो हि धर्मसमाश्रयः स्वसिद्ध-सत्ताकस्य च धर्मिण सत्त्वासत्त्वनित्यत्वानित्यत्वाद्यनेकविरुद्धाविरुद्धधर्मकदम्बकाभ्युपगमे सति
सप्तभङ्गी सम्भवः, तत्र सङ्ग्रहव्यवहाराभिप्रायात् त्रयः सकलादेशाः, चत्वारस्तु विकलादेशा: समवसेया: ऋजुसूत्रशब्दसमभिरुद्वैवंभूतनयाभिप्रायेण।
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