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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४९९ / ११२२ दर्शन। चार्वाक प्रमाण के द्वारा सिद्ध जीव द्रव्य और पर्याय आदि के विभाग को काल्पनिक कहकर नहीं मानता है और लोगों के स्थूल व्यवहार का अनुगामी होने के कारण चार भूतों के विभाग मात्र को स्वीकार करता है, यह विभाग विचार बिना सुन्दर प्रतीत होता
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लोगों का व्यवहार प्रायः बाह्य इन्द्रियों के द्वारा चलता है । जिस अर्थ का इन्द्रियों के द्वारा अनुभव नहीं होता उसकी सत्ता को सामान्य लोग नहीं मानते । सामान्य लोग ही नहीं, परीक्षक लोग भी इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान न होने पर स्थूल अर्थों का अभाव मानते हैं । इस प्रकार का व्यवहार यथार्थ है । एकान्त रूप से स्थूल अर्थों के प्रत्यक्ष का आश्रय लेकर चार्वाक जब इन्द्रियों से अगम्य अर्थ का निषेध करने लगता है तब व्यवहाराभास हो जाता है । अर्थ दो प्रकार के हैं, इन्द्रियगम्य और इन्द्रियों से अगम्य । जिन अर्थों का संवेदन इन्द्रियों द्वारा नहीं होता उनको यदि न स्वीकार किया जाय तो स्थूल प्रत्यक्ष अर्थों का आधार नहीं रह सकता । वृक्ष-लता, फूल, फल, ईंट-पत्थर आदि जितने अर्थ हैं, इन सब के अवयवों का जब विभाग होता है तब छोटे-मोटे खंड दिखाई देते हैं । इन में से ईंट और पट आदि को बनाना हो तो मिट्टी के पिंडों के संयोग से इंटों को और तन्तुओं के संयोग से पट को बनाया जाता है । अवयवों के संयोग से अवयवी द्रव्य उत्पन्न होते हैं और अवयवों के विभाग से नष्ट होते हैं । यह नियम स्थूल द्रव्यों के जन्म और नाश को देखकर सिद्ध होता है । इस नियम के अनुसार द्रव्यों के स्थूल अवयवों के खंड होते चल जायेंगे । खंड करते करते वह अवस्था आ जायेगी जब अत्यन्त सूक्ष्म खंड दिखाई तो देगा पर उसके खंड न किये जा सकेंगे, इस आदिम स्थूल के अवयव नहीं किये जा सकते हैं तो भी नियम के अनुसार उसके अवयव होने चाहिए । आदिम स्थूल अवयव के सूक्ष्म उत्पादक व मानने होंगे । यदि ये सूक्ष्म अवयव न हों तो आदिम स्थूल का जन्म बिना अवयवों के मानना पडेगा । परन्तु सूक्ष्म अवयवों के बिना स्थूल द्रव्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । शून्य किसी अर्थ को भी नहीं उत्पन्न करता । इस प्रकार स्थूल अर्थों के आधार को आंख आदि इन्द्रियाँ नहीं जानती तो भी मानना पडता है । सूक्ष्म द्रव्य ही नहीं, इनके रूप स्पर्श आदि गुणों को भी इन्द्रियाँ नहीं जान सकती । यदि आदिम दशा के अवयव रूप रस आदि गुणों से रहित हों, तो स्थूल अवयवों में रूप रस आदि का जन्म न हो सकेगा । इन्द्रियों के द्वारा जिनका अनुभव प्रत्यक्ष रूप से न हो सके उनकी सत्ता स्थूल अर्थों के लिए भी अपरिहार्य है । इस तत्त्व की उपेक्षा करके चार्वाक पृथ्वी आदि चार स्थूल द्रव्यों को तो स्वीकार कर लेता है पर जिनका अनुभव इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता उनका अनुमान से सिद्ध होने पर भी निषेध करने लगता है ।
स्थूल शरीर प्रत्यक्ष है उसी को स्वीकार करता है । शरीर से भिन्न चेतन द्रव्य को नहीं मानता । उसका यह अनुमान से विरुद्ध है । स्थूल द्रव्यों के गुणों का संवेदन उस नियम को प्रकट करता है जिसके द्वारा ज्ञान-सुख आदि गुण शरीर के नहीं सिद्ध होते । स्थूल द्रव्यों में सूक्ष्म द्रव्य प्रवेश कर जाते हैं, उस दशा स्थूल द्रव्य का स्वाभाविक गुण नहीं प्रतीत होता और अन्दर प्रविष्ट होनेवाले द्रव्य का गुण स्थूल द्रव्य में प्रतीत होने लगता है । पानी शीतल द्रव्य है और तेज उष्ण द्रव्य है । जब तेज के अवयव पानी के अन्दर चले जाते हैं तब पानी के शीत स्पर्श का अनुभव नहीं होता, उस दशा में पानी का स्पर्श उष्ण प्रतीत होने लगता है । वास्तव में उष्ण स्पर्श तेज का है पर जल के गुणरूप में प्रतीत होता है 1 शरीर भी भौतिक है, रूप-गन्ध आदि उसके गुण हैं जिनका अनुभव इन्द्रियों द्वारा होता रहता है । शरीर के समान जो अर्थ पृथ्वी जल आदि से उत्पन्न होते हैं उनमें ज्ञान, इच्छा, सुख आदि के होने का प्रमाण नहीं मिलता, इस दशा में अनुमान होता है, शरीर में ज्ञान सुख आदि जिन गुणों का संवेदन होता है, वे गुण वास्तव में शरीर के नहीं हैं। शरीर के अन्दर प्रवेश करनेवाला कोई सूक्ष्म द्रव्य है जिसके गुण ज्ञान सुख आदि है पर शरीर के गुण होकर प्रतीत होते हैं । यदि ज्ञान सुख आदि शरीर के गुण स्वाभाविक होते तो जब तक शरीर है तब तक अवश्य रहते । प्राणों के निकल जाने पर रूप गन्ध आदि गुण शरीर में दिखाई देते हैं और ज्ञान सुख आदि का अनुभव नहीं होता । तेज के निकल जाने पर पानी शीतल हो जाता
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