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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४९३/ १११६ नयवाक्य पर आश्रित सप्तभङ्गी : जैसे प्रमाणवाक्य विधि-प्रतिषेध द्वारा प्रवर्तमान सप्तभंगी का अनुसरण करता है, वैसे नयवाक्य भी सप्तभंगी का अनुसरण करता है, वह बताते है -
नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गीमनुगच्छति, विकलादेशत्वात् परमेतद्वाक्यस्य प्रमाणवाक्याद्विशेष इति द्रष्टव्यम् ।(91) (जैनतर्कभाषा)
अर्थ : नयवाक्य भी अपने विषय में जब प्रवृत्त होता है तब विधि और निषेध के द्वारा सप्तभङ्गी को प्राप्त होता है। नयवाक्य विकलादेश है इसलिए प्रमाण वाक्य से इसका भेद है । ___ कहने का आशय यह है कि, किसी भी नय के वाक्य को लेकर सप्तभङ्गी की प्रवृत्ति हो सकती है । इस विषय में दो प्रकार हैं । एक प्रकार के अनुसार एक भङ्ग एक नय के अनुसार प्रवृत्त होता है तो विरोधी नय के अनुसार अन्य भङ्ग प्रवृत्त होता है । इस अपेक्षा से विचार करने पर नैगम और संग्रह परस्पर विरोधी नय हैं । नैगम से यदि अस्ति का अर्थात् सत्त्व का प्रतिपादन होगा तो संग्रह से नास्ति अर्थात् असत्त्व का प्रतिपादन होगा । इसी प्रकार परस्पर विरोधी नैगम और व्यवहार अथवा नैगम और ऋजुसूत्र अथवा नैगम और शब्द अथवा नैगम और समभिरूढ अथवा नैगम और एवंभूत नय के आश्रय से सप्तभङ्गी प्रकट हो सकती है ।
इसी रीति से जो अनेक सप्तभङ्गीयाँ प्रकट होती हैं उन सब में एक अर्थ में विरोध के बिना विधि और निषेध की कल्पना प्रधानरूप से होती है । इस प्रकार प्रथम और द्वितीय भङ्गों के स्थिर होने पर अन्य भङ्ग भी खडे हो जाते हैं, इन में एक भङ्ग कथंचित् अवक्तव्य है । कुछ आचार्यों के अनुसार अवक्तव्य भङ्ग का सप्तभंगी में स्थान तृतीय है और कुछ आचार्यों के मत में चतुर्थ स्थान है । इस अवक्तव्य भङ्ग का प्रथम और द्वितीय भङ्गों के साथ क्रम से अथवा बिना क्रम के संयोग करने पर अन्य भङ्ग प्रकट होते हैं ।
इसका एक उदाहरण संग्रह और उसके विरोधी अन्य नयों के आश्रय से प्रकट होनेवाली सप्तभङ्गी में मिलता है । यदि संग्रह के अनुसार घट को किसी अपेक्षा से सत् ही कहा जाय तो अन्य नयों के आश्रय से प्रथम भङ्ग के निषेध करनेवाले द्वितीय भङ्ग का उदय होगा । संग्रह नय सत्त्व सामान्य को स्वीकार करता है । उसके अनुसार घट किसी अपेक्षा से सत् ही है । असत् अर्थ का ज्ञान नहीं होता । आकाश का पुष्प असत् है इसलिए उसका अनुभव नहीं होता । यदि घट असत् हो तो आकाश पुष्प के समान उसका ज्ञान नहीं होना चाहिए । व्यवहार नय का आश्रय लेकर इसका निषेध हो सकता है। व्यवहार नय के अनुसार कहा जायेगा, घट केवल सत् नहीं । द्रव्यत्व और घटत्व आदि रूप से भी ज्ञान होता है । इसी प्रकार ऋजुसूत्र नय का आश्रय लेकर निषेध की कल्पना होती है । वर्तमान स्वरूप से भिन्न स्वरूप के साथ घट नहीं प्रतीत होता । यदि अन्य रूपों के साथ प्रतीत हो तो घट में अनादि और अनंत सत्ता का अनुभव होना चाहिए । परन्तु घट में अनादि और अनन्त काल के पर्यायों में रहने वाली सत्ता का अनुभव नहीं होता । अतः ऋजुसूत्र नय के अनुसार घट कथंचित सत ही नहीं है । इसी प्रकार शब्द नय का आश्रय लेकर निषेध की कल्पना होती है । काल.कारक आदि के भेद से अर्थ भिन्न दिखाई देते हैं । वर्तमान में जो अर्थ है वही अतीत और अनागत में नहीं है । अतीत और अनागत की अपेक्षा से घट कथंचित असत भी है । यदि काल आदि के भेद से अर्थ में भेद न हो तो काल आदि का भेद ही नहीं सिद्ध हो सकेगा । समभिरूढ का आश्रय लेकर भी निषेध की कल्पना हो सकती है । घट सत् ही नहीं हो सकता । घट शब्द द्वारा जब कहा जाय तब घट है पर जब कलश अथवा कुंभ शब्द से कहा जाय तो घट नहीं है । घट और कुंभ में भेद है 91.अथ यथा नयवाक्यं प्रवर्तते तथा प्रकाशयन्ति-नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधि-प्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गीमनुव्रजति।।७-५३।।
यथा प्रमाणवाक्यं विधि-प्रतिषेधाभ्यां प्रवर्तमानं सप्तभङ्गीमनुगच्छति, तथैव नयवाक्यमपि स्वविषये-स्वप्रतिपाद्ये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यांपरस्परविभिन्नार्थनययुग्मसमुत्थविधि-निषेधाभ्यां कृत्वा सप्तभङ्गीत्वमनुगच्छति ।।५३।। (प्र.न.तत्त्वा०)
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