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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
के रूप में प्रमाण है परन्त सप्तभंगी का प्रमाणभाव नयभाव का विरोधी नहीं है । प्रत्येक भंग नयरूप है और सातों भंगों का समुदाय प्रमाणरूप है । समुदायी अर्थों का जो स्वरूप होता है वह उनके समुदायरूप में नष्ट नहीं होता । वृक्षों का समदाय वन कहा जाता है। वन रूप में होने पर भी प्रत्येक वृक्ष का वृक्षात्मक स्वरूप दर नहीं होता। सप्तभंगी के रूप में प्रमाण होने पर भी एकएक भंग का नयभाव सर्वथा दूर नहीं होता । वृक्ष और वन का स्वरूप जिस प्रकार परस्पर विरोधी नहीं है इसी प्रकार सप्तभंगीरूप स्याद्वाद नामक प्रमाण का नयों के साथ विरोध नहीं है । शब्द नय के अनुसार शब्द के वाच्य अर्थ का आश्रय लेकर जो सप्तभंगी प्रकट होती है उसका कोई भी एक भंग जिस रूप में अर्थ का प्रतिपादन करता है वह रूप ऋजसूत्र के अर्थ की अपेक्षा अधिक विशिष्ट होता है, इस तत्त्व में कोई दोष नहीं है । अब समभिरूढ से शब्दनय के विषय की अधिकता बताते हुए कहते है कि,
प्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सतः समभिरूढाच्छब्दस्तद्विषया (द्विपर्यया) नुयायित्वाद्बहुविषयः ।(89) (जैनतर्कभाषा)
अर्थ : पर्याय शब्दों के भेद से अर्थ में भेद माननेवाले समभिरूढ नय के द्वारा जो प्रतीत होता है उसके विपरीत विषय का प्रतिपादक होने के कारण शब्द समभिरूढ की अपेक्षा अधिक विषयवाला है ।
यहाँ कहने का आशय यह है कि, शब्द नय के अनुसार इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि शब्द भिन्न भिन्न पर्याय हैं परन्तु इन्द्र एक अर्थ है । अनेक पर्याय शब्द, शब्द नय के विषय हैं । समभिरूढ के अनुसार इन्द्र को शक्र नहीं कह सकते और शक्र को पुरन्दर नहीं कह सकते । शब्द नय के अनुसार एक इन्द्र के अनेक धर्मों का प्रतिपादन भिन्न पर्याय करते हैं । समभिरूढ के अनुसार कोई भी एक शब्द इन्द्र के अनेक धर्मों का प्रतिपादन नहीं करता । प्रत्येक पर्याय एक एक धर्म को ही कहता है । इसलिए समभिरूढ का विषय न्यून है और शब्द का विषय अधिक है । अब एवंभूत से समभिरूढ की विषयाधिकता
प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थं प्रतिजानानादेवम्भूतात्समभिरूढः तदन्यथार्थस्थापकत्वाद्बहुविषयः ।(90) (जैनतर्कभाषा)
अर्थ : क्रिया के भेद से अर्थ में भेद माननेवाले एवंभूत की अपेक्षा समभिरूढ का विषय अधिक है । वह एवंभूत के विरोधी अर्थ का प्रतिपादक है ।
कहने का मतलब यह है कि, जब गौ चल रही हो तभी एवंभृत नय के अनुसार गौ कही जा सकती है । 'जो जाती है वह गौ है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार एवंभूत नय समझता है, गौ कहलाने के लिए गति का होना आवश्यक है । इस प्रकार चलती गौ ही गौ शब्द का वाच्य हो सकती है, बैठी अथवा सोई हुई नहीं । समभिरूढ नय के अनुसार जिस प्रकार चलती हुई गौ, गौ कही जाती है इसी प्रकार सोई वा बैठी गौ भी गौ शब्द का वाच्य है । इस रीति से समभिरूढ नय का विषय एवंभूत की अपेक्षा अधिक है । इसी प्रकार एवंभूत नय जब राजा छत्र चामर आदि की शोभा से युक्त होता है, तभी उसको राजा पद से कहने योग्य मानता है । छत्र आदि के द्वारा जब शोभा न हो रही हो तब वह राजा नहीं कहा जा सकता । परन्तु समभिरूढ नय छत्र आदि के साथ और छत्र आदि के बिना भी 'राज' पद का व्यवहार करता है । यहाँ भी समभिरूढ नय का अधिक विषय स्पष्ट है ।।
कि,
89.शब्दात्समभिरूढो महार्थ इत्यारेका पराकुर्वन्ति - प्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सत: समभिरूढाच्छब्दस्तद्विपर्ययानुयायित्वात् प्रभूतविषय:
।।७-५१।। पर्यायशब्दानां व्युत्पत्तिभेदेन भिन्नार्थतामभ्युपगच्छतोति समभिरूढोऽल्पविषयः, शब्दनयस्तु पर्यायशब्दानां व्युत्पत्तिभेदेनाप्यभिन्नार्थतामङ्गीकरोतीति बहुविषयः ।।५१।। (प्र.न.तत्त्वा०) 90. समभिरूढादेवंभूतो बहुविषय इत्यप्याकूतं प्रतिक्षिपन्ति - प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थं प्रतिजानानादेवंभूतात् समभिरूढस्तदन्यार्थस्थापकत्वाद् महागोचरः ।।७-५२।। (प्र.न.तत्त्वा०) क्रियाभेदेनार्थभेदमभ्युपगच्छत एवंभूतात् क्रियाभेदेऽप्यर्थाऽभेदं प्रतिपादयन् समभिरूढोऽनल्पविषयः ।।५२।।
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