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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन २५/६४८ करण में कर्तृत्व होता है। कहने का मतलब यह है कि, कर्तृत्व में शरीर का कोई उपयोग नहीं है। कर्ता बनने में केवल ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न ही उपयोगी है। जैसे, मनुष्य मर के नये शरीर को धारण करने की तैयारी करता है, तब उस वक्त स्थूलशरीर न होने पर भी नये शरीर को ग्रहण करता है। नये शरीर में उपयोगी परमाणु आदि की प्रेरणा भी करता है।) इसलिए कर्तृत्व के लिए शरीर की आवश्यकता नहीं है। जैन ( उत्तरपक्ष): आपका यह असमीक्षित (यथायोग्य विचारणारहित) कथन है। क्योंकि शरीर के बिना परमाणु की प्रेरणा होती नहीं है। कहने का मतलब यह है कि मृत्यु के बाद नये शरीर की रचना में स्थूल शरीर का अभाव होने पर भी सूक्ष्मशरीर तो होता है। वही नये शरीर को उपयोगी परमाणुओको प्रेरणा करता है। यदि मरण के बाद उत्पन्न होते नये शरीर में सूक्ष्म शरीर के प्रयत्न का अभाव मानोंगे तो मुक्तात्माओ की तरह नये शरीर की रचना असंभवित बन जायेगी। तथा शरीर के अभाव में ज्ञानादि का आश्रयत्व भी संभवित नहीं है। अर्थात् ईश्वर को शरीर रहित मानोंगे तो ईश्वर में ज्ञानादि नहीं रह सकेंगे। क्योंकि ज्ञानादि की उत्पत्ति में शरीर निमित्तकारण है। अन्यथा (अर्थात् ज्ञानादि की उत्पत्ति में शरीर निमित्तकारण नहीं है, ऐसा मानोंगे तो) मुक्तात्मामें भी ज्ञानादि की उत्पत्ति माननी पडेगी कि जो आपको इष्ट नहीं है। क्योंकि आप मुक्तात्मा में ज्ञानादि की अत्यंतनिवृत्ति मानते हो। इसलिए "जंगलीवृक्षादि के कर्ता शरीर के अभाव के कारण अदृश्य है।" "यह पक्ष अयोग्य सिद्ध होता है। वैसे ही विद्या के प्रभाव से जंगलीवृक्षादि का कर्ता अदृश्य है।" यह बात भी उचित नहीं है। क्योंकि विद्या के प्रभाव से कर्ता अदृश्य हो तो कोई बार तो वह दृश्य बनेगा ही। क्योंकि विद्याधारि व्यक्ति भी शाश्वतकाल के लिए अदृश्य होते नहीं है। जैसे कि, पिशाचादि विद्या से अदृश्य होने पर भी कोई बार तो दिखते ही है। परन्तु जंगली वृक्षादि के कर्ता तो आज तक नहीं दिखे है। इसलिए विद्या के प्रभाव से अदृश्य है, वह बात भी उचित नहीं है। तथा जंगलीवृक्षादि का कर्ता अदृश्य होने में अदृश्य जातिविशेष भी कारण नहीं है। क्योंकि जाति एक व्यक्ति में रहती नहीं है। जो अनेक व्यक्तियों में रहे उसको जाति कहा जाता है। __ अथवा ईश्वर दृश्य हो या अदृश्य हो, तो भी वह ईश्वर (१) सत्तामात्र से पृथ्वी आदि का कारण बनते है ? या (२) ईश्वर ज्ञानवाले होने से पृथ्वी आदि का कारण बनते है? या (३) ईश्वर ज्ञान-इच्छा-प्रयत्नवाले होने से पृथ्वी आदि का कारण बनते है? या (४) ज्ञानादिपूर्वक व्यापार होने से पृथ्वी आदि के कारण बनते है ? या (५) ऐश्वर्यवाले होने से पृथ्वी आदि के कारण बनते है ? यदि आप कहोंगे कि "ईश्वर की उपस्थिति मात्र से सत्ता मात्र से पृथ्वी आदि कार्य होते है ।" तो कुंभकारादि में भी जगत्कर्तृत्व की आपत्ति आयेगी। क्योंकि ईश्वर और कुम्हारादि सर्वत्र विद्यमान ही होते है। (नैयायिको के मतानुसार आत्मा विभु है।) अर्थात् दोनो के सत्त्व में कोई भेद न होने से ईश्वर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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