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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन इसलिए वह ईश्वर तो अपनी बुद्धि आदि की उत्पत्ति में समवायिकारण बनता है, निमित्तकारण नहीं । प्रकृत में बुद्धिमन्निमित्तत्वरुप कर्तृत्व ही विविक्षित है । इसलिए ईश्वर की बुद्धि आदि से कार्यत्व हेतु व्यभिचारी बनता है। २४ / ६४७ तथा कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट = बाधित भी बनता है । प्रमाणान्तर से हेतु के साध्य का अभाव सिद्ध हो उसे कालात्ययापदिष्ट = बाधित कहा जाता है। यहां अपने आप उगते निकलते तृण आदि में प्रत्यक्ष से कोई बुद्धिमान् कर्ता देखने को नहि मिलता है । इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण से कार्यत्व हेतु के साध्य बुद्धिमत्कर्तृत्व का अभाव सिद्ध होने से कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट बनता है। जैसे कि, अग्नि को अनुष्ण सिद्ध करने दिया गया हुआ द्रव्यत्वहेतु । यहां प्रत्यक्ष से अग्नि उष्ण है अर्थात् अनुष्ण नहीं है, ऐसा महसूस किया जाता है। इसलिए द्रव्यत्वहेतु कालात्ययापदिष्ट बनता है । ईश्वरवादि ( पूर्वपक्ष ) : बोये बिना उगे हुए तृणादि का कर्ता भी अदृश्य ईश्वर ही है । जैन ( उत्तरपक्ष ) : आपकी बात उचित नहीं है। क्योंकि तृणादि में अदृश्य ईश्वर कर्ता का सद्भाव, इसी अनुमान से है या अन्य प्रमाण से है ? (आपको यह जवाब देना चाहिए।) यदि आप "तृणादि, जंगली वृक्षो में अदृश्य कर्ता कार्यत्व हेतुवाले अनुमान से सिद्ध होता है।" ऐसा कहोंगे तो चक्रकदोष आयेगा । जहां तीन या तीन से अधिक पदार्थो की सिद्धि एक-दूसरे के अधीन हो वहां चक्रकदोष लगता है। कहने का मतलब यह है कि जब कार्यत्व हेतु से कर्ता का सद्भाव सिद्ध हो, तब उगाये बिना उगते जंगली वृक्ष आदि में अदृश्य होने से कर्ता की अनुपलब्धि मान लिया जाए तथा जब वह निश्चय हो कि, "जंगली वृक्ष आदि में कर्ता की अनुपलब्धि अदृश्य होने के कारण है । कर्ता का अभाव होने से नहि । " तब कार्यत्व हेतु में अबाधितविषयता आये, तथा जब कार्यत्व हेतु अबाधित होने से कालात्ययापदिष्ट दोष शून्य हो जाये, तब वह जंगली वृक्षो में कर्ता का सद्भाव सिद्ध कर सकेगा। इस तरह से परस्पर अनेक पदार्थो के अधीन कर्ता के सद्भाव की सिद्धि होने से चक्रकदोष लगता है । द्वितीयपक्ष अयोग्य है । क्योंकि जंगली वृक्षो आदि में कर्ता का सद्भाव सिद्ध करनेवाला दूसरा कोई प्रमाण देखने को नहीं मिलता है। अथवा किसी भी तरह से मान ले कि "उस जंगली वृक्षादि में कर्ता का सद्भाव है" तो हमारा प्रश्न है कि वह कर्ता अदृश्य है, । उसमें (१) शरीराभाव कारण है ? (२) विद्यादि का प्रभाव कारण है ? या (३) अदृश्य जातिविशेष कारण है ? प्रथम पक्ष में कर्तृत्व की अनुपपत्ति है । क्योंकि शरीर के बिना कर्तृत्व की संगति नहीं होती है। जैसे मुक्तात्मा को शरीर न होने के कारण उसमें कर्तृत्व नहीं होता, वैसे शरीर के अभाव में कर्तृत्व नहीं होता है। ईश्वरवादि ( पूर्वपक्ष ) : शरीर का अभाव होने पर भी ज्ञान, इच्छा और कृति के आश्रय ऐसे (शरीर) For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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