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________________ ४७६/१०९९ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद (५) शब्दनय : अब शब्दनय का स्वरूप देखेंगे । - शब्दनय(68) का स्वरूप और उसके उदाहरण देते हुए जैनतर्कभाषा में बताया है कि, कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः । काल-कारक-लिंग-संख्या-पुरुष-उपसर्गाः कालादयः। तत्र बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यत्रातीतादिकालभेदन सुमेरोर्भेदप्रतिपत्तिः, करोति क्रियते कुम्भः इत्यादौ कारकभेदेन, तटस्तटी तटमित्यादौ लिङ्गभेदेन, दाराः कलत्रमित्यादौ संख्याभेदेन, यास्यसि त्वम्, यास्यति भवानित्यादौ पुरुषभेदेन, सन्तिष्ठते अवतिष्ठते इत्यादावुपसर्गभेदेन । अर्थ : - काल आदि के भेद से शब्द के अर्थ में भेद का स्वीकार करनेवाला शब्दनय हैं । काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग ये कालादि हैं । "सुमेरु था, है और होगा" - यहाँ अतीतादि काल के भेद से सुमेरु के भेद का ज्ञान होता है । "कुंभकार घट को बनाता है, कंभकार द्वारा घट बनाया जाता है" यहाँ कारक के भेद से अर्थ के भेद का ज्ञान होता हैं । "तटः तटी तटम" इस स्थान पे लिंग के भेद से अर्थ के भेद का ज्ञान होता हैं । "दाराः कलत्रम" इस स्थान पे संख्या के भेद से अर्थ के भेद का ज्ञान होता हैं । “यास्यसि त्वम्” (=आप जायेंगे) और “यास्यति भवान्" (=आप जायेंगे) इस स्थान पे पुरुष के भेद से अर्थ के भेद का ज्ञान होता हैं । “अवतिष्ठते सन्तिष्ठते" यहाँ उपसर्गो के भेद से अर्थ के ज्ञान में भेद होता हैं । कहने का आशय यह है कि, जब किसी वस्तु का अतीतकाल के साथ संबंध प्रकाशित होता हैं, तब अर्थ का ज्ञान जिस रूप से होता है, उसकी अपेक्षा से वर्तमानकाल में होनेवाले ज्ञान का स्वरूप भिन्न होता है । ज्ञान के स्वरूप में भेद होने के कारण अर्थ का भी भेद आवश्यक हैं । ज्ञान के भेद के कारण पदार्थो का भेद निश्चित होता हैं । “घट और पट, पृथ्वी और पानी, सूर्य और चंद्र भिन्न है" इस तत्त्व का निश्चय ज्ञान के भेद पर आश्रित हैं । यदि ये सभी पदार्थो का ज्ञान एक स्वरूप में हो, तो पदार्थो के स्वरूप का भेद निश्चित नहीं हो सकेगा । शब्द जब काल के भेद से पदार्थ को प्रकट करता हैं, तब भी ज्ञान का स्वरूप भिन्न होता हैं, इसलिए काल के भेद से पदार्थ में भी भेद मानना चाहिए, ऐसा शब्दनय का अभिप्राय हैं । उसी तरह से जब “घडे को बनाता हैं" - इस प्रकार से कहते है, तब घट का कर्ता प्रधानरूप से प्रतीत होता हैं। उससे विरुद्ध जब “घट बनाया जा रहा है"- इस प्रकार कहते हैं, तब घट प्रधान रुप से प्रतीत होता है और कर्ता अप्रधानरूप से प्रतीत होता है । प्रधान और अप्रधान रुपो का भेद आवश्यक है । इस तरह से यहाँ भी कारक के भेद से अर्थ में भेद मानना चाहिए - ऐसा शब्दनय का मत हैं । तदुपरांत, स्त्री, पुरुष और नपुंसक का भेद प्राणीओं में स्पष्ट हैं । जब कोई एक अर्थ को स्त्रीलिंग, पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग शब्द से कहा जाता है, तब अर्थ एक आकार का प्रतीत होने पर भी भिन्न स्वरूप में प्रतीत होता है । इसलिए वहाँ भी प्रतीति के अनुसार पदार्थो का भेद स्वीकार करना चाहिए - ऐसा शब्दनय का अभिगम हैं । उपसर्गो के भेद से अनेक बार परस्पर विरोधी अर्थो का ज्ञान होता है । “गच्छति" कहने से “जाता है" ऐसा अर्थ प्रतीत होता है और “आगच्छति" कहने से “आता है" ऐसा अर्थ प्रतीत होता है । दोनों अर्थ भिन्न है । इसलिए उपसर्ग के भदे से पदार्थो का भेद स्वीकार करना चाहिए, ऐसी शब्दनय की मान्यता हैं। 68.कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः ।।७-३२।। यथा-बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादिः ।।७-३३।। कालादिभेदेन-काल-कारक-लिङ्ग-संख्या-पुरुषोपसर्गभेदेन, ध्वनेः-शब्दस्य अर्थभेदं प्रतिपद्यमानोऽभिप्रायविशेष: शब्दनयः ।।३२।। यद्यपि सुमेरोर्द्रव्यरूपतयाऽभिन्नत्वात् पर्यायरूपतया च भिन्नत्वाद् भिन्नाभिन्नत्वं वर्तते, तथाऽपि शब्दनयो विद्यमानमपि कनकाचलस्य द्रव्यरूपतयाऽभेदमुपेक्ष्य केवलं भूत-वर्तमान-भविष्यल्लक्षणकालत्रयभेदाद् भेदमेवावलम्बते । आदिपदेन 'करोति क्रियते कुम्भः' इति कारकभेदे । 'तटस्तटी तटम्' इति लिङ्गभेदे । 'दाराः कलत्रम्' इति संख्याभेदे । ‘एहि मन्ये रथेन यास्यति, नहि यास्यसि, यातस्ते पिता' इति पुरुषभेदे । 'सन्तिष्ठते, उपतिष्ठते' इत्युपसर्गभेदेऽप्यर्थस्य भिन्नत्वं स्वीकरोति ।।३३।। (प्र.न.तत्त्वा.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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