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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४७३/१०९६ है। इसलिए ये तीन नय द्रव्यार्थिक कहे जाते हैं । इसी तरह से शब्दादि पीछे के तीन नय पर्यायो को ही विशेष से देखते हैं । अलंकार यथास्थान पर पहने जाते हैं । अलंकारो से शरीर शोभायमान किया जाता हैं । सुवर्ण की लगडीयाँ नहीं पहनी जाती। ये शरीर को शोभायमान नहीं कर सकती । इसलिए पर्याय यही तत्त्व हैं । इस प्रकार शब्दादि तीन नय पर्याय को ज्यादा महत्त्व देते हैं । इसलिए वे पीछे के तीन नय पर्यायार्थिक कहे जाते हैं । इस मान्यता में आचार्यों को कोई विवाद नही हैं। विवाद बीच के (एक) ऋजुसूत्रनय के विषय में है । ऋजुसूत्रनय वर्तमानकाल को मानता हैं । वर्तमान काल दो प्रकार का हैं । १. क्षणिक वर्तमान काल और २. कुछ दीर्घ वर्तमान काल । ये दोनों प्रकार के वर्तमान काल में तत् तत् समय में होनेवाला पर्याय भी है और तत् तत् पर्याय के आधारभूत द्रव्य भी है । सिद्धान्तवादी आचार्य इस ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिक नय में इसलिए ले जाते हैं कि, "यह नय तत् तत् समय में होते पर्याय के आधारभूत द्रव्यांश को ज्यादा मानता है" ऐसा सिद्धान्तवादी आचायो का कहना हैं । जब कि. तर्कवादी आचार्य इस ऋजसत्रनय को पर्यायार्थिक में इसलिए ले जाते हैं कि, “यह नय तत् तत् समय में प्रकट होते पर्यायांश को ज्यादा मानता हैं " इसलिए तर्कवादी आचार्य इस ऋजुसूत्रनय को पर्यायार्थिक नय में ले जाते हैं । जिससे दोनों आचार्यों के अभिप्राय अलग पडते हैं । द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से द्रव्य ही सत्य हैं, पर्याय कल्पित हैं और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पर्याय ही सत्य हैं, पर्यायो से भिन्न ऐसा द्रव्य हैं ही नहीं और पर्यायो से ही अर्थक्रिया होती हैं । नित्य ऐसा द्रव्य कहीं भी उपयोग में नहीं आता हैं । इस अनुसार से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय का लक्षण उपर अनुसार होने से तार्किक पू. आचार्यों का कहना हैं कि, भूतकाल और भाविकाल के पर्यायो का प्रतिक्षेप (विरोध) करनेवाला (अर्थात् नहीं माननेवाला) ऐसा यह ऋजुसूत्रनय, शुद्ध ऐसे अर्थपर्याय को (क्षणमात्रवर्ती शब्दो से अवाच्य ऐसे क्षणिक वर्तमान पर्याय को) माननेवाला यह नय हैं । इसलिए वह द्रव्यार्थिकनय क्यों बने ? ऐसा यह तर्कवादी आचार्यो का आशय हैं । तर्कवादी आचार्यो का कहना ऐसे प्रकार का है कि, ऋजुसूत्रनय वर्तमानकालग्राही हैं और वर्तमानकाल में तो पर्याय की ही प्रधानता होती हैं । द्रव्यांश की प्रधानता नहीं होती हैं । क्योंकि यदि द्रव्यांश ले तो वह त्रिकालवर्ती होने से भूत-भावि भी आ जाये और यह नय भूत-भावि तो स्वीकार करता नहीं है । इसलिए वर्तमानकालवी अर्थपर्याय को ही यह ऋजुसूत्रनय स्वीकार करता हैं । तो उसका द्रव्यार्थिकनय में अन्तर्भाव किस तरह किया जा सकता हैं ? अनुयोग द्वार सूत्र का विरोध और उसका परिहार : ___ वे तर्कवादी आचार्यों के मतानुसार ऋजुसूत्रनय वर्तमानकालग्राही होने से, शुद्ध ऐसे अर्थपर्याय को माननेवाला होने से, पर्यायार्थिकनय में उसका अन्तर्भाव होता हैं । उसके लिए “द्रव्यावश्यक में लीन संभवित नहीं है" अर्थात् नामावश्यक स्थापनावश्यक, द्रव्यावश्यक और भावावश्यक ये चार प्रकार के आवश्यको में भावावश्यक ही होता हैं । द्रव्यावश्यक क्यों हो ? अर्थात् द्रव्यावश्यक न हो, ऐसा वे मानते हैं । क्योंकि वर्तमानावस्था को भाव कहा जाता हैं और भावनिक्षेपा की अगली-पिछली (भूत-भावि) अवस्था को द्रव्य कहा जाता हैं । जो यह नय नहीं मानता हैं । इसलिए यह ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से भावनिक्षेपा ही स्वीकृत होने से "द्रव्यावश्यक की लीनता (मान्यता) संभवित नहीं हैं । ऐसे प्रकार का तर्कवादी आचार्यों का अभिप्राय हैं ।"(65) परन्तु अनुयोगद्वार सूत्र में ऋजुसूत्रनय द्रव्यावश्यक को भी मान्य रखता है ऐसा कहा है। उस पाठ के साथ इन तर्कवादीओं को उपरोक्त मान्यता स्वीकार करने से विरोध आता है । अनुयोगद्वार सूत्र का पाठ इस 65.ते आचार्य नईं मतई ऋजुसूत्रनय द्रव्यावश्यकनई विषई लीन न संभवइ तथा च - "उज्जुसुअस्स एगे अणुवउत्ते एगं दव्वावस्सयं, पुहत्तं णेच्छइ" इति अनुयोगद्वारसूत्रविरोधः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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