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________________ ४६०/१०८३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद घटाकारोऽपि घट एव, तुल्यपरिणामत्वात, अन्यथा तत्त्वायोगात, मुख्यार्थमात्राऽभावादेव तत्प्रतिकृतित्वोपपत्तेः। मृत्पिण्डादिर्द्रव्यघटोऽपि घट एवान्यथा परिणामपरिणामिभावानुपपत्तेः । भावघटपदं चासंदिग्धवृत्तिकमेव ।। - किसी भी शब्द के व्याकरणादि अनुसार सम्भावित जितने भी अर्थ होते हैं, उन को निक्षेप कहा जाता हैं । उन अर्थों का ज्ञान कराने के लिए उन के लक्षण और विभाजन के द्वारा प्रतिपादन भी निक्षेप पदार्थ हैं, जिस का पर्याय शब्द न्यास भी है। निक्षेप के कम से कम चार भेद हैं-नाम, द्रव्य, स्थापना और भाव । किसी वस्त के नामकरण को नामनिक्षेप कहा जाता है। शास्त्रकारने संज्ञाकर्म शब्द से भी नामनिक्षेप का लक्षण बताया है । नामकरण और संज्ञाकर्म इन में शब्द से ही भेद है, अर्थ तो एक ही, दोनों शब्दों से बोधित होता है, क्योंकि संज्ञा और नाम ये दोनों शब्द पर्यायवाचक हैं और कर्मशब्द यहाँ क्रियावाचक होने से कर्म और करण इन दोनों शब्दों से एक ही अर्थ बोधित होता है । नामनिक्षेप में, जिस वस्त का कछ नाम रखा जाय उस नामवाचक शब्द के अवयवार्थों का उस शब्द से बोध होना आवश्यक नहीं होता है । जैसे-किसी व्यक्ति का 'इन्द्र' ऐसा नाम रख दिया जाय तो, वह नाम से इन्द्र कहा जायेगा, परन्तु उस में इन्द्रशब्दावयव “इन्द्" धातु से प्रतीयमान पारमैश्वर्य उस व्यक्ति में न भासे तो भी वह इन्द्र तो कहा जाता हैं । नैगमनय इस तरह के नामनिक्षेप को भी मानता है । तथा, काष्ठनिर्मित या पाषणादि निर्मित मूर्ति में अथवा चित्र में किसी देवता विशेष का अनुसंधान करने पर उस में इन्द्र आदि की स्थापना का व्यवहार होता है । इस तरह किसी भी वस्तु के आकार में उस वस्तु के स्थापन को स्थापना निक्षेप कहते हैं । भावि में उत्पन्न होनेवाले या नष्ट हो गये हुए कार्य विशेष के उपादान कारण को द्रव्यनिक्षेप कहते हैं । गुण पर्याय सहित वस्तु के असाधारण स्वरूप का जो प्रदर्शन, उसको भावनिक्षेप कहते हैं । ये निक्षेप सभी पदार्थों के ज्ञान में उपयुक्त होते हैं क्योंकि इन के बिना वस्तु स्वरूप का प्रतिविशिष्ट रूप से ज्ञान नहीं हो पाता है । “नैगमनय" इन चारों निक्षेपों को कैसे मानता है, इस को उदाहरण द्वारा श्री महोपाध्यायजी स्पष्ट करते हैं । __ (घट इत्यभिधान) जलाहरण साधनभूत पात्र विशेष का “घट" ऐसा नाम किया जाता है । यह “घट" ऐसा अभिधान भी घट ही कहलाता है । यहाँ घट-शब्द को 'घट' नाम से पुकारना यही नाम निक्षेप है । घट शब्द से वाच्य जैसे-घटरूप अर्थ होता है, वैसे घट शब्द का वाच्य घट शब्द भी होता है । घटात्मक अर्थ और घट शब्द इन दोनों में भेद रहने पर भी घट शब्द वाच्यत्वरूप से कथञ्चित् अभेद ही रहता है । इस वस्तु को प्रमाणित करने के लिए शास्त्र वचन का प्रदर्शन किया है कि (अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः) अर्थ यानी घटादि वस्तु, अभिधान यानी घट शब्द और प्रत्यय यानी घट इत्याकारक बुद्धि, इन तीनों का नामधेय अर्थात् संज्ञा तुल्य अर्थात् एक ही है । यदि घट अर्थ का बोध किसी को करना हो तो घट शब्द का प्रयोग करना जैसे आवश्यक होता है वैसे ही घट शब्द का और 'घटः' इत्याकारक बुद्धि का बोध किसी को कराना हो तो भी घट शब्द का ही प्रयोग करना पडता है, इसलिए वाच्य घट, वाच्य शब्द तथा घट शब्द से का नाम घट ही होता है । वाच्य और वाचक में कथञ्चित् तादात्म्य (अभेद) यहाँ अभीष्ट है । यदि घटरूप वाच्य और घटशब्दस्वरूप वाचक इन दोनों में अत्यन्त भेद माना जाय तो घटरूप अर्थ में जो नियमत: घटपद की शक्ति मानी जाती है, वह नहीं सिद्ध होगी । कारण, घट शब्दापेक्षया घटरूप अर्थ में जैसे अत्यन्त भेद रहता है, वैसे पटादिरूप अर्थ में भी रहता है, तब घट शब्द की शक्ति पटादिरूप अर्थ में भी हो सकती है । इसलिए घट शब्द और घटरूप अर्थ इन दोनों में कथञ्चिद् अभेद मानना आवश्यक है । किसी चित्र आदि में जो घटाकार का प्रदर्शन किया जाय उसे स्थापना घट कहा जाता हैं क्योंकि आकार की दृष्टि से देखा जाय तो वह घटाकार और वास्तविक घट इन दोनों में तुल्य परिणाम होता है । यदि चित्रादिगत घटाकार को घटस्वरूप न माने तो उस घटाकार को केवल आकार ही कहना होगा किंतु उस को 'यह घटाकार है' ऐसा नहीं कह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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